Thursday, December 25, 2008

मेरे प्यारे दीपक

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल,
प्रियतम का पथ आलौकित कर!

सौरभ फैला विपुल धूप बन,
मृदुल मोम-सा घुल रे मृदु तन
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित
तेरे जीवन का अणु गल-गल!
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!

सारे शीतल कोमल नूतन,
माँग रहे तुझको ज्वाला-कण
विश्वशलभ सिर धुन कहता ''मैं
हाय न जल पाया तुझमें मिल''!
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!

जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेहहीन नित कितने दीपक
जलमय सागर का उर जलता
विद्युत ले घिरता है बादल!
विहंस-विहंस मेरे दीपक जल!

द्रुम के अंग हरित कोमलतम
ज्वाला को करते हृदयंगम
वसुधा के जड़ अंतर में भी,
बन्दी नहीं है तापों की हलचल!
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल!

मेरे निश्वासों से द्रुततर
सुभग न तू बुझने का भय कर
मैं अंचल की ओट किए हूँ,
अपनी मृदु पलकों से चंचल!

Tuesday, December 23, 2008

मेरी जिद्‍ तुम्हीं तो थीं

प्रिय जानम,

यह मेरी जिद्द थी कि
तुम मेरी रहो...
मेरी शहदत है, कि
मैंने तुम्हें टूटकर चाहा

और यह सच हैं, ग्वाह हैं
मेरे दिल का जहान
जहाँ आज भी तुम रहती हो
मैं जानता हूँ कि तुम मेरे
इन शब्दों से बहुत दूर हो...
पर... फिर भी तुम
मेरे कितने करीब हो...

मेरे दिलो दिमाग पर
छाए रहते हो...
मेरे आस-पास
तुम्हीं तो रहते हो...

सिर्फ तुम्हारा 'राज'

Saturday, December 20, 2008

किससे कहें....

प्रिय जानम,

हम कहें किससे अपनी व्यथा
कारुणिक है हमारी कथा...

मिल गए आप, अच्छा हुआ
मर गए होते हम अन्यथा।।

वह मुझे देगी धोखा कभी
स्वप्न मे भी ये सोचा न था।।

रात के साथ ही ढल चली
रातरानी की अंतर्कथा।।

रंक हैं ये तो राजा नहीं
इन से पाने की आशा वृथा।।

खेलना दिल से, फिर तोड़ना
प्यार की अब यही है प्रथा।।

'जीत' होती है बस धैर्य की
आपदा-काल में सर्वथा।

सिर्फ तुम्हारा 'राज'

Friday, December 19, 2008

प्यार को बाँधिए विश्वास की मजबूत डोर से

- राजेंद्रसिंह कुशवाह


यह बात आई-गई हो गई कि बिन एक-दूसरे को देख वो जन्मों के सात बँधनों में बंध जाते थे। न वो एक-दूसरे की सोच और समझ से परिचित होते थे, न ही किसी तरह की कोई बात होती थी, बस उन्हें सिर्फ यह पता रहता था कि भारतीय परम्परा के अनुसार सात जन्मों के बंधनों में बंधना है। जहां घर के बुजुर्ग व्यक्तियों द्वारा रिश्तों को नए आयाम और दिशा दी जाती थी, उन रिश्तों में कभी भी खटास या पारिवारिक मतभेद नहीं होते थे। परन्तु आज इन सारी चीजों को बहुधा स्थिति में अभाव दिखाई देता है। आज चेहरा तो दूर की बात है कुछ दिनों तक एक-दूसरे के साथ मिलना, उठना, बैठना और एक-दूसरे की समझ को समझना फिर अंत में अपने रिश्तों को बाँधने की परम्परा को अंजाम दिया जाता है।

इसके बावजूद भी क्यों टूटते हैं रिश्तें? क्यों हो जाते हैं मन एक-दूसरे के विपरीत? जबकि उन्होंने तो शादी के पहले एक-दूसरे को पूर्ण रूप से समझ लिया था। फिर क्या बात थीं.... दोनों एक-दूसरे के विपरीत हो गए...

नेहा और रीतेश दोनों ही मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते हैं। दोनों की शादी को हुए दो साल हो चुके हैं। शादी के पहले भी लगभग दो साल तक इनके परिवार वाले और नेहा व रीतेश आपसे में मिलते रहते थे, तब कहीं जाकर इन्होंने शादी की। दोनों के परिवार वाले आज इस बात से परेशान हैं कि ऐसी कौन-सी बात हो गई है कि आज शादी के दो साल बाद ये दोनों एक-दूसरे के विपरीत हो गए हैं। एक वो दिन था जब दोनों घंटों अपने कमरे में बैठकर बातें करते रहते थे और एक-दूसरे के बिना नहीं रहते थे।

यह सर्वविदित है कि पति और पत्नी के रिश्तों के बीच एक विश्वास की डोर होती है, जहाँ वह एक-दूसरे को बंधनों में बाँधने के लिए होती है। यदि इसी विश्वास रूप डोर यदि टूट जाए तो उस परिवार और रिश्तों को बिखरने से दुनिया की कोई भी ताकत नहीं रोक सकती है, जिसका अंजाम दोनों परिवारों के लिए दुःखदायी हो जाता है।

बात उन दिनों की है, जब रीतेश, नेहा से शादी कर अपने घर-परिवार में ले आया था। तब जाहिर है कि नेहा को रीतेश से पहले से कहीं ज्यादा अपेक्षाएँ हो जाना स्वाभाविक है। यह बात रीतेश भी समझता था, परन्तु रीतेश के पास आज नेहा के अलावा माँ, पिता व बहन की भी जिम्मेदारियाँ थी। रीतेश की बहन मोनिका जो कि स्वभाव से चंचल एवं पूरे घर की चहेती थी, सारे घर में मोनिका को लेकर हमेशा उत्साहित रहते थे, वह उसकी छोटी-बड़ी जरूरतों को पूरा करने के लिए हर सम्भव कोशिश की जाती थी।

मोनिका को एमबीए में प्रवेश लेने के लिए जहाँ रीतेश ने अपनी कम्पनी से लोन लेकर उसे प्रवेश दिलाया, वह खुश था कि उसकी बहन को एमबीए में प्रवेश मिल गया। वही नेहा को यह बात पूरी तरह खलती थी कि घर के सारे परिवार के लोग मोनिका को लेकर उत्साहित रहते हैं। जबकि नेहा को लेकर परिवार के लोगों और रीतेश का रवैया काफी सकारात्मक रहता था। घर में हर काम को नेहा से पूछकर ही अंजाम दिया जाता था। चाहे वह बात कितनी ही छोटी क्यों न हो, नेहा से आवश्यक रूप से उस कार्य में सलाह ली जाती थी।

दोनों की जिंदगी में मोड़ उस समय आया जब नेहा ने एक टेलीकॉम कम्पनी में सेल्स एज्यूक्टिव की जॉब की। नेहा ने बी.कॉम के साथ कम्प्यूटर में भी डिप्लोमा ले रखा था। रीतेश के पिता की मृत्यु के बाद नेहा दिनभर घर पर अकेली रहती थी और मोनिका अपनी पढ़ाई के लिए होस्टल में रहती थी। इसके चलते नेहा दिनभर खाली रहती थी, रीतेश अपने बैंक के कार्य में हमेशा डूबा रहता था। इसके चलते नेहा की जिंदगी में एक स्थिरता आ गई थी। रोज का वही रूटिन कार्य कर दिन-भर अकेलापन उसके काफी खलता रहता था।

नेहा का नया-नया जॉब और उसके साथ ही बॉस द्वारा नेहा को दी जाने नित्य नई जिम्मेदारियाँ और जिन्हें अपनी पूरी जिम्मेदारी के साथ नेहा ने निभाया। नेहा और बॉस की उम्र में ज्यादा अन्तर नहीं था, नेहा के काम से सचिन (बॉस) काफी प्रभावित थे, यही नहीं सचिन द्वारा अपने प्रोजेक्ट्स में भी नेहा की सोच को शामिल कर कार्य को अंजाम देता था। वही दूसरी ओर रीतेश का अन्य जगह ट्राँसफर हो गया। रीतेश हर शनिवार और रविवार को घर आता था।

जबकि इधर रीतेश में बढ़ते काम के बोझ और दूसरा अन्यत्र जगह ट्रांसफर हो जाने के कारण चिड़चिड़ापन-सा आ गया था, जिसका सामना नेहा को करना पड़ता था, कभी-कभी तो दोनों में अनबन भी हो जाती थी, परन्तु रीतेश अपनी समझ के अनुरूप नेहा को मना लेता था, परन्तु इधर रीतेश से हुई दूरियों ने नेहा को सचिन के प्रति ज्यादा आकर्षित कर दिया था, जिसका एहसास रीतेश को नहीं था, परन्तु वह कुछ दिनों से नोट कर रहा था कि नेहा पहले की तरह उसका ध्यान नहीं रख रही है, पूछने पर नेहा अपने काम के प्रति ज्यादा व्यस्तता को बताती, इसके चलते नेहा का झुकाव कब सचिन की ओर हो गया उसे खुद भी इस बात का एहसास ही नहीं हुआ।

इधर, सचिन ने भी नेहा को अपने प्रोजेक्ट्स में शामिल कर लिया। अब दिन-भर दोनों साथ रहते थे। साथ घूमना, साथ खाना-खाना, शापिंग करना इनका शगल बन गया था। यही नहीं रविवार को भी वह दोनों लगभग दो-तीन घंटे साथ-साथ बिताते थे, जिसके चलते रीतेश को यह कतई पसंद नहीं था, उसकी शिकायत रहती थी कि मैं तुम्हारे लिए शनिवार और रविवार के दिन घर आता हूँ और तुम ऑफिस में चली जाती हो। इस तरह की बातें नित्य प्रतिदिन दोनों की दिनचर्या में शामिल हो गई, चूँकि नेहा अब पूरी तरह से सचिन की ओर आकर्षित हो गई थी, इसलिए वह रीतेश की ओर से किनारा करने लगी।

हालाँकि रीतेश, नेहा से बहुत प्यार करता था, उसकी हर बात का ख्याल रखता था, परन्तु फिर भी नेहा सचिन की ओर....

यह बात कुछ समझ से परे थी, पर चंचल मन को कौन बाँध सकता है और एक दिन वही हुआ जिसका डर हमेशा नेहा को सताता था, रीतेश शनिवार को आवश्यक कार्य होने के कारण उस दिन अपने घर नहीं आया उसने नेहा को फोन करके बता दिया था कि मैं इस बार शनिवार और रविवार को घर नहीं आ रहा हूँ, बैंक में ऑडिटिंग का काम चल रहा है।

इसी बात का फायदा नेहा ने उठाया और रविवार को सचिन को अपने घर पर खाने के लिए बुला लिया। इधर रीतेश ने शनिवार का दिन और रात लगातार काम किया और अपने काम को विराम देकर, रविवार को सुबह ही ऑफिस से घर के लिए रवाना हो गया। सोच रहा था कि आज नेहा वाकई में बहुत खुश होगी उसे देखकर। इस तरह के विचार लिए वह बस में बैठ गया, बस की सीट पर बैठते ही उसे नींद ने अपने आगोश में ले लिया और उसे पता ही नहीं चला कि कब वह अपने गृह नगर पहुँच गया।

बस से उतरते समय लगभग दिन के १२.३० का समय हो रहा था। घर पहुँचते ही जैसे ही उसने अपने घर के बाहर खड़ी कार को देखा, तो एक बार तो सकते में आ गया कि मेरे घर और कार...! कौन हो सकता है? और भी पता नहीं कितनी ही प्रकार की कुशंकाओं ने उसे घेर लिया। जैसे ही उसने कॉलबेज बजाई... लगातार दूसरी बार बजाने पर नेहा ने दरवाजा खोला...। नेहा ने जैसे ही रीतेश को दरवाजे पर पाया तो एकदम सहम-सी गई और हकलाते हुए कहने लगी कि आप... आपने तो कहा था कि आप आज आ नहीं रहे हो... फिर...।

रीतेश नेहा के इस रवैये से कुछ विचलित-सा हो गया, फिर रीतेश ने नेहा से कहा कि अब घर में आ जाऊँ या फिर चला जाऊँ। इस बात से नेहा थोड़ी सकपका गई। जैसे ही रीतेश अंदर गया... वहाँ डायनिंग टेबल पर सचिन को देखा, इतने में ही नेहा ने एक-दूसरे से परिचित करवाया।

यही बात रीतेश के दिल में घर कर गई और नेहा के बदले हुए रवैये का कारण उसे समझ में आ गया। बात सिर्फ यही खत्म नहीं हो जाती है। धीरे-धीरे रीतेश ने नेहा पर नजर रखना शुरू कर दिया। पहले वह शनिवार और रविवार को आता था, लेकिन आजकल वह सप्ताह के बीच में भी कभी-कभी आ जाता था। एक-दो बार और उसने सचिन और नेहा को बाजार में घूमते-फिरते देखा। रीतेश को बात अब पूरी तरह समझ में आ गई थी, जिसके चलते दोनों में अब पहले जैसा प्यार नहीं रहा और बात तलाक तक आ गई।

चूँकि नेहा सचिन के प्रति पूर्णतः समर्पित हो गई थी और वह अब हर हाल में रीतेश को छोड़ना चाहती थी, रीतेश ने नेहा को अच्छा और बुरा दोनों ही बातें समझाई परन्तु नेहा अपनी बात पर अडिंग रही।

इधर रीतेश ने भी रोज-रोज के झगड़ों से परेशान होकर नेहा को तलाक दे दिया। उधर, नेहा के घर वाले भी काफी चिंतित थे कि अब क्या होगा? पर नेहा को इन सारी बातों से कोई सरोकार नहीं था, वह हर हाल में सचिन को पाना चाहती थी।

दूसरी ओर सचिन ने टेलीकॉम कम्पनी छोड़ नई कम्पनी ज्वाइन कर ली, जिसमें उसे अच्छा पैकेज और अन्य कई सुविधाएँ मिली। इसके साथ ही उसे यह शहर भी छोड़ना पड़ा। नेहा ने जब सचिन को अपनी सारी बातें बताई और अपनी इच्छा सचिन के सामने रखी कि वह रीतेश को छोड़ चुकी है और वह उसके साथ शादी करना चाहती है, तो सचिन ने नेहा से कहा कि वह उससे प्यार नहीं करता है, वह तो आज के मॉर्डन जमाने के हिसाब से उसके साथ रहता था। उसने कहा कि वह अभी शादी नहीं करना चाहता है। उसे अपना कॅरियर बनाना है। इस बात को जब नेहा ने सुना तो उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई और उसने सचिन को काफी भला-बुरा कहा पर सचिन ने कहा कि इसमें मेरी क्या गलती है, तुम्हारी तरफ से मेरे प्रति पहल हुई थी, मैंने तो तुमसे कभी नहीं कहा कि मैं तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ या शादी करना चाहता हूँ।

नेहा ने जब वास्तिविकता के धरातल को छूआ तो मानो आसमान टूट पड़ा हो उसके ऊपर, रह-रहकर रीतेश के द्वारा दी गई समझाइश उसके सामने आने लगी। हर वो बात जो रीतेश ने उसे समझाया था, उन्हीं सारी बातों का सामना आज नेहा को करना पड़ा।

अंत में नेहा के पास कुछ भी नहीं बचा, सिर्फ बची तो टेलीकॉम की नौकरी... और दोनों खाली हाथ...।

यदि नेहा अपने पति के काम को अपनी व्यक्तिगत जीवनमें स्वीकार कर लेती तो शायद आज उसे यह दिन नहीं देखना पड़ता। अगर इस बीच वह अपने पति की बातों को मान अपनी गलतियों को स्वीकार कर लेती तो भी वह आज अपने परिवार को संभाल सकती थीं। इसलिए तो कहा है कि 'प्रेम गली अति साँकरी जा मैं दो न समाय।'

Thursday, December 18, 2008

तुम्हारा मुझसे रूठना...


हाँ मैं मानता हूँ कि
गलती मुझसे हुई
पर तुम भी भागीदार
थी, मेरी गलती मैं

तुम जब जानती हो कि मैं हूँ
उस जहान का
जहाँ से मुझे मतलब नहीं,
फिर भी मैं
जुडा रहा तुम्हारे जहान से

जानने की कोशिश भी नहीं की...
चाहता तो, तो तुम्हारा सारा जहान
मेरा अपना था, मैं सब कुछ जान सकता था
पर, तुम्हारी अपनी इच्छा नहीं थी
फिर कैसे गुस्ताखी कर सकता था...

कुछ लोग मेरे अपने थे
कुछ अजनबी थे....
फिर मैं तुम्हारी और मेरी
बात को कैसे जग
जाहिर करता....

पर अब तुम मुझे जानती हो
चेहरे से पहचानती हो
फिर भी क्यों मेरी अनजानी-सी
गलती को स्वीकार
नहीं करती हो...

मैं बात नही करूंगा... तुमसे
बात करोगी तुम, मुझसे
तब ही, हम मिलेगे, तुमसे

- 'राज'

Wednesday, December 17, 2008

मेरा गुनाह


- राजेन्द्र कुशवाह

मैं अत्यन्त ही अनमने मन से कदम बढ़ाता हुआ घर जाने के लिए उसके ऑफिस से निकला। चलते वक्त मैं उससे नजरें नहीं मिला सका, औपचारिकतावश मैंने सिर्फ उसका अभिवादन किया था। मैं घर कब पहुँचा और क्या-क्या रास्ते भर सोचता रहा मुझे कुछ याद नहीं।


आज मेरी श्रद्धा, पूजा और प्रीति जैसे बिखर कर टुकड़े-टुकड़े हो गई हो और प्रत्येक टुकड़ा मुझसे जवाब माँग रहा हो कि इसका सारा श्रेय तुम्हें जाता है, सिर्फ तुम्हें। मेरे अंतर्मन में एक टीस उठती है, एक दर्द उठता है, ऐसा अव्यक्त दर्द, जिसकी कोई परिभाषा नहीं कोई सीमा नहीं। आज मुझे एहसास हुआ कि मुझे कोई हक नहीं था, इस तरह अपनी पूजा, श्रद्धा, प्यार और प्रीति को पलने-बढ़ने देने का जिसका कि मैं स्वयं हत्यारा हो जाऊँगा। मैं जन्म से या आदतन अपराधी नहीं हूँ, फिर भी कुछ अपराध ऐसे हो ही जाते हैं, जिसकी सजा व्यक्ति को गीली लकड़ी की तरह जलाती है और उसके हिस्से में राख भी नहीं आती है।


मैंने प्यार और प्रीति का गुनाहगार हूँ और न्याय की उम्मीद भी इन्हीं से ? कैसी विडम्बना थी यह। शायद फैसला मुझे पहले से ही मालूम होना चाहिए था, फिर भी आशा और विश्वास का एक दिया मेरे हृदय में टिमटिमाता रहा। संक्षिप्त, बल्कि एक शब्द के फैसले से एक बिखर गई (प्रीति) और दूसरी (विश्वास) टूट गया। बिखरे हुए को तो समेटा जा सकता है, किन्तु टूटे हुए को जोड़ा नहीं जा सकता और जुड़ा भी तो गाँठ अवश्य पड़ जाएगी अर्थात वह सम्पूर्ण कहलाने का हकदार नहीं है।


अब मैं क्या कर सकता था, अपने दिल के सामने, सिवाए उसे झूठी आशा और ढिंढासा बाँधने के। मेरी सालों की प्रीत और विश्वास का यह सिला मिलेगा, मैं सोच भी नहीं सकता था, शायद मेरी ही आराधना में कुछ कमी रह गई होगी, जिसके कारण मुझे उसका फैसला मेरे दिल के प्रति सकारात्मक नहीं मिला और उसने सिर्फ एक शब्द में 'ना' रूपी इनकार मेरे दामन में डाल दिया... और मैं अपने भारी मन से घर की ओर चला आया।

Saturday, December 6, 2008

तुम्हारा मुझसे रूठना...

हाँ मैं मानता हूँ कि
गलती मुझसे हुई
पर तुम भी भागीदार
थी, मेरी गलती मैं

तुम जब जानती हो कि मैं हूँ
उस जहान का
जहाँ से मुझे मतलब नहीं,
फिर भी मैं
जुडा रहा तुम्हारे जहान से

जानने की कोशिश भी नहीं की...
चाहता तो, तो तुम्हारा सारा जहान
मेरा अपना था, मैं सब कुछ जान सकता था
पर, तुम्हारी अपनी इच्छा नहीं थी
फिर कैसे गुस्ताखी कर सकता था...

कुछ लोग मेरे अपने थे
कुछ अजनबी थे....
फिर मैं तुम्हारी और मेरी
बात को कैसे जग
जाहिर करता....

पर अब तुम मुझे जानती हो
चेहरे से पहचानती हो
फिर भी क्यों मेरी अनजानी-सी
गलती को स्वीकार
नहीं करती हो...

मैं बात नही करूंगा... तुमसे
बात करोगी तुम, मुझसे
तब ही, हम मिलेगे,
तुमसे

'राज '

लाल, पीली और हरी बत्ती

-राजेन्द्र कुशवाह
लाल, पीली और हरी बत्ती से आप और हम भलीभाँति परिचित हैं। लाल बत्ती तो रुको, पीली बत्ती बस थोड़ा और, हरी बत्ती ठीक है चले जाओ! मैं जब घर से निकलता हूँ तो मुझे रास्ते में इन्हीं बत्तियों का सामना करना पड़ता है। हाँ, ये बात और है कि चौराहे पर मुझे चंद सेकंड या ये कहें अधिक से अधिक 1 मिनट ही रुकना पड़ता है।

वैसे तो कभी ध्यान नहीं दिया कि इस 1 मिनट में क्या हो रहा है, लेकिन एक दिन सोचा क्यों न इस एक मिनट पर गौर किया जाए। बस फिर क्या था, आपके सामने है वो बातें जिन्हें मैंने देखा, सुना...

दृश्य : प्रथम

45 सेकंड : यार, ये लाइट भी न बस लेट करवा देती है... बाइक पर सवार दो दम्पति... क्या हुआ, अभी तो टाइम है, डॉक्टर मैडम तो आधे घंटे लेट आएँगी। ठीक है, पर चौराहे पर खड़ा होना बहुत बेकार लगता है। उसकी पत्नी बोली। कुछ लोग बार-बार अपनी घड़ी की ओर देखते... फिर सिग्नल की ओर। अरे! भाई जब हमें मालूम है कि इन लाइटों का सामना करना पड़ेगा तो जल्दी क्यों नहीं निकलते।

वहीं चौराहे पर कुछ लफंगे टाइप के लड़के जो कि एक बाइक पर तीन सवार थे, यातायात नियमों को ताक पर रख, पास में स्कूटी पर खड़ी लड़की को ऐसे आँखें गड़ाकर देख रहे थे कि मानो उनकी आँखें न हुईं, एक्सरे मशीन हो गई। वहीं दूसरी ओर मैं भी खड़ा था, जो इन गतिविधियों को देख रहा था।

दृश्य : दो

वहाँ से अगले चौराहे पर पहुँचा। वहाँ मैं देखता हूँ कि मेरे पास में बेहद खूबसूरत लड़की एक्टिवा पर थी। उसे देखकर ऐसा लगा कि जैसे ईश्वर ने उसे फुरसत के पलों में बनाया हो। उसने अपने चेहरे पर हलका-सा मैकअप किया हुआ था, बाल खुले हुए और आँखों में काजल, होंठों पर गुलाबी-सी लालिमा लिए वाकई में कुदरत की बनाई हुई बेहतरीन कृति थी। मैंने भी अन्य लोगों की तरह भरपूर नयन सुख लिया।


चौराहे पर जितने भी लोग उपस्थित थे, सभी लोग उस लड़की को नजरें चुराकर देख रहे थे। तभी पीछे से किसी ने हॉर्न बजाया और मेरा ध्यान उस लड़की से हटा। मैंने अपनी बाइक को साइड में किया और उन सज्जन को जगह दी।


पास में खड़े हुए अंकल जो बार-बार मेरी ओर देखे जा रहे थे, तो मन में संकोच हुआ कि लगता है कि वह मुझे काफी देर से नयनसुख लेते हुए देख रहे थे। उनका चेहरा बता रहा था कि मेरा उस लड़की को यूँ देखना उन्हें भाया नहीं, पर वो भी कर क्या सकते थे, मन मसोसकर रह गए। मेरे आगे की ओर एक भाई साहब अपनी धर्मपत्नी के साथ स्कूटर पर सवार थे, वो भी बार-बार अपनी पत्नी की ओर देखते हुए उड़ती हुई नजरों से उस लड़की के सौंदर्य को निहार रहे थे। बाद में उन्होंने अपने साइड मिरर का एंगल ऐसा कर लिया कि उन्हें अब मुड़कर देखने की जरूरत महसूस नहीं हुई।


पर वो सज्जन यह नहीं देख रहे थे कि उनकी धर्मपत्नी को भी चार-पाँच अन्य लोग निहार रहे हैं। उनकी पत्नी बार-बार अपने बालों को सँवार रही थी और चहुँओर सरसराती नजर डाल रही थी।


दृश्य : तीन


अब ये मेरे ऑफिस के पास का अंतिम चौराहा था, जो कि सबसे ज्यादा व्यस्त रहता था। चौराहे का ट्रैफिक जितना व्यस्त था, उतना ही वहाँ पर तैनात यातायातकर्मी सुस्त था। वो अपनी मोटी तोंद का वजन अपने पैरों पर कैसे सह रह था, वह तो उसके पैर ही बता सकते हैं।


लाल बत्ती होने के बावजूद कुछ लोग लाइन क्रॉस करके आगे बढ़कर निकल चुके थे और वह यातायातकर्मी अपनी ही धुन में था। उसने इतनी जहमत भी नहीं उठाई की उनका नम्बर नोट कर ले।
तभी मेरे पास में जो लोडिंग रिक्शेवाला खड़ा था, उसका स्वर मेरे कानों में गूँजा- अब इस साले मोटे को भी बीस-तीस रुपए देने होंगे तब ही ये जाने देगा। मैंने लोडिंग वाले से पूछा ऐसा क्यों, तो रिक्शेवाला बोलता है कि दिन में हम इन व्यस्त चौराहों से लोडिंग रिक्शा नहीं निकाल सकते हैं और अगर निकालना होता है तो इन्हें बीस से तीस रुपए तक देना पड़ता है। उसकी बात खत्म ही नहीं हुई थी कि वह ट्रैफिक वाला उसके पास आ गया। रिक्शेवाले ने पहले से निकालकर रखे बीस रुपए उसके हाथों में थमा दिए।


यह वही ट्रैफिक वाला था, जो रेड लाइड तोड़कर जाने वालों का नम्बर भी नोट नहीं कर रहा था, लेकिन पूरे यातायात को सिर्फ ट्रैफिक छतरी के हवाले छोड़कर उस रिक्शेवाले के पास आ गया था। जब उसने बीस रुपए देखे तो उसका माथा ठनका और रिक्शेवाले से बोला- अगली बार नहीं आना है क्या। तीस रुपए दे। रिक्शेवाले ने कहा कि सर अभी तो बोहनी भी नहीं हुई है। बाद में ले लेना।


यह बात सुनते ही मोटे ट्रैफिक वाले के चेहरे पर गुस्सा स्पष्ट नजर आ रहा था। ज्यादा हुज्जत न करते हुए रिक्शेवाले ने 30 रुपए दे ही दिए। शायद उसे मालूम था कि यह मोटा ट्रैफिक वाला मानने को तैयार नहीं होगा।


ये पूरा वाकया अन्य लोग भी देख रहे थे, परन्तु कोई भी ऐसा नहीं था कि इस बात का विरोध करे... क्योंकि हम भी कभी-कभी न कभी 20-25 रुपए देकर चालान जैसी प्रक्रिया से बचते आए हैं। इतने में ही ग्रीन लाइट हो गई और मैंने अपनी बाइक को ऑफिस की ओर मोड़ दिया।