मेरे अपने जज्बातों को शब्दों में पिरोने की एक कोशिश... जिससे कि आप रूबरू हो सकें मुझसे और मेरे अपने जज्बातों से...
Sunday, December 26, 2010
राकेश वर्माजी : शून्य से शिखर तक
8 दिसम्बर 2010 की शाम 6.05 की सर्द शाम को मैं अपने दिए हुए नियमित काम को खत्म करने के प्रयास में लगा हुआ था, मारुति की खड़खड़ और ट्रैफिक के कारण मुझे मेरे फोन की घंटी कुछ धीम सुनाई दी, जिसे मैंने तुरंत ही उठाया और हलौ बोला... मुझे सिर्फ इतना ही सुनाई आया कि जहाँ भी हो तुरंत घर यानी कि मेरे बोस श्री राकेश वर्मा जी के यहाँ आ जाऊँ। यह सुनते ही मैंने ड्रायवर को बोला कि तुरंत ही घर की तरफ चलो, साथ ही मन में कई तरह की आशांकाओं ने घेर लिया था, तरह-तरह के ख्यालात मेरे मन में आ रहे थे, सोच-सोचकर दिमाग ने काम करना बंद कर िदया था, तभी कुछ देर बात फोन की घंटी फिर बजी... मैं अंशु वर्मा बोल रहा हूँ... अब हमें किसी भी चीज की जरूरत नहीं हैं, तुम घर आ जाओ... यह सुनते ही मेरे शरीर में उस सर्द शाम को गर्मी की लहर आ गई और पूरा शरीर मानो जड़ सा हो गया हो और पसीने से सराबोर हो गया था। जब तक मैं बोस के घर नहीं पहुँचा तब तक होश ही नहीं था कि मैं कहाँ पर था। घर जाकर देखा तो हालत ही खराब थी, मेरा सबकुछ जा चुका था। मेरी मेहनत, मेरा करना, सबकुछ व्यर्थ हो चुका था। मेरे बोस श्री राकेश वर्माजी का निधन हो चुका था। मेरे जीवन में फिर वही 8 दिसम्बर की शाम जो कि सालों पहले घटी थी, वो ही घटना फिर हो गई। मेरे जीवन का अहम और अजीज व्यक्ति फिर आज इस दुनिया से जा चुका था। मेरा मन पूरी तरह से विचलित था। समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करूँ, किससे अपनी बात को शेयर करूँ... किस के कांधे पर सिर रखूँ... कोई भी तो नहीं था मेरे पास। सामने जो थे वो सब सिर्फ 8-10 दिन के ही तो जान पहचान के थे...। पर मेरा अपना तो कोई नहीं था, जिसके सामने मैं अपनी बात रख सकूँ।
शिकायत सिर्फ अपने दिल से थी... कि क्यों इतना लगाव रखा... क्यों इतनी जगह दिल में दी। पर मैं भी करता क्या... उस व्यक्ति में इतना आकर्षण... इतना जीनियसपन कि आज तक कोई ऐसा व्यक्ति मेरे जीवन में नहीं आया था। कितना अच्छा महसूस होता था, जब मैं उनके पास बैठकर उनकी बातों को सुनता था...। उनसे जीवन के अनुभव और कई तरह की बातें किया करता था, मुझे उनसे मिले हुए मात्र 5 माह ही हुए थे, उनकी पत्नी श्रीमती प्रेरणा वर्मा मेरी मैंनेजिग डायरेक्टर थी। मेरी नियुक्ति श्री राकेश वर्माजी ने ही की थी। बहुत सारे लोग उनके पास थे, परन्तु मेरे गॉड फादर श्री किशोरजी ने उनके पास मुझे भेजा था, तो उन्होंने मुझे ही अपने ऑफिस के लिए रखा था और साथ ही श्री िकशोरजी ने िहतायद दी थी, कि मैं मन लगाकर काम करूँ और उनसे यानी श्री राकेशजी को किसी भी तरह की िशकायत का मौका नहीं दूँ। पर मुझे क्या मालूम था कि मेरी सेवा का यह फल मुझे िमलेगा। मेरा श्री राकेशजी से इतना लगाव हो गया था कि मैं सोचता था कि प्रेरणा वर्मा कब घर से बाहर जाएगी और मैं राकेश वर्माजी के साथ बैठूँगा और उनकी आवाज सुनकर उनकी सेवा कर सकूँगा। मैं ये तो नहीं जानता कि वो मुझे कितना पसंद करते थे, परन्तु मैं उनको बहुत ही पसंद करता था, (था से ये मतलब नहीं कि मैं अब उन्हें पसंद नहीं करता... मैं आज भी उनको अपने आसपास ही महसूस करता हूँ)। वो मेरी कमजोरी और काम करने के तरीके में बहुत मदद करते थे, उनकी पत्नी को भी नहीं मालूम वो मुझे किस तरह से सारी बातें बताते थे, नहीं राजेन्द्र ऐसा करा करो... मेरे मार्गदर्शक... मेरे पथप्रदर्शक और मेरे अजीज श्री राकेश वर्माजी से मैंने अपने जीवन के सभी पहलूओं से अवगत कराया था और यकीन नहीं होगा आपको कि उन्हें बोलने में तकलीफ होती थी, परन्तु वह मुझसे ढेर सारी बातें किया करते थे। उनकी पत्नी मुझे बोलती थी िक राजेन्द्र ये तुमसे बहुत बातें करते हैं, इतनी तो मुझसे भी नहीं करते।
सच कहूँ तो आज भी उन्हें मैं अपने आसपास ही महसूस करता हूँ। बचपन मैं ही पिता का साया उठने के बाद अपनी ही समझ से चलता रहा। जो अपनी समझ ने कहा वो ही करा। जब राकेश वर्माजी से मिला तो लगा कि नहीं जिंदगी में पहली बार कोई व्यक्ति ऐसा मिला है जिससे दुनिया के अनुभव लेकर मैं अपने जीवन को बेहतर तरीके से सँवार सकता हूँ। वर्ष 1997 से जब मैं इंदौर आया था, तब से लेकर अभी तक वक्त की आँधी ने मुझे यहाँ वहाँ पटका और सही मायने में जब जिंदगी की शुरुआत होने जा ही रही थी कि अचानक काल के क्रूर हाथों ने मुझसे अपना सबसे प्रिय पथप्रदर्शक छीन लिया। ऐसा लगा जग ने मुझे खुले आम लूट लिया। यकीन मानिए आज मुझसे कंगाल इस पूरी दुनिया में दूसरा कोई न होगा।
मैंने जब श्री वर्माजी की कम्पनी ज्वाइन की थी, तब जेहन में ये ख्याल बिलकुल भी नहीं आया था िक राजेन्द्र तुम्हें यहाँ जिंदगी के अनुभव का ऐसा अनमोल खजाना मिलने जा रहा है, िजसकी तलाश तुम बरसों से कर रहे थे। एक दुर्घटना की वजह से उनकी जिंदगी एक व्हीलचेयर तक सिमट गई थी। उन्होंने इसे भी आत्मसात किया और ईश्वर का प्रसाद मानकर कबूल किया और टेलीकॉन्फ्रेंसिंग के जरिए ही वे अमेरिका की सॉफ्टवेयर कम्पनी एजटेक का और इंदौर ऑफिस का संचालन कर रहे थे।
मैं उनके इस साहस को देखकर सोचा करता था िक वर्माजी में ऐसे हालातों में भी काम करने का कितना जज्बा-जोश है, शारीरिक क्षमता न होने को उन्होंने बोझ नहीं माना और जिंदगी के आखिरी लम्हों तक काम ही करते रहे। यहाँ मुझे प्रख्यात लेखक शिवाजी सावंत की 'मृत्युंजय' पुस्तक के कुछ अंश याद आ रहे हैं... 'मनुष्य भावनाओं पर जीता है, लेकिन कभी-कभी उसको कर्तव्य के लिए भावना को पीछे धकेलना पड़ता है, औरों के लिए जो जीता है वही मनुष्य है।' 'जीवन मनुष्य की कठोर परीक्षा लेता है, प्रत्येक बात मनुष्य की इच्छानुसार हो जाएगी, ऐसा नहीं होता।' 'जीवन में अनेक घटनाएँ घटित होती है। मनुष्य चाहे िजतना प्रयत्न करे, फिर भी वह उन सभी घटनाओं को याद नहीं रख सकता, लेकिन कुछ घटनाएँ ऐसी होती है कि भूलने का प्रयत्न करने पर भी वे भुलाई नहीं जाती। जल में रहने वाला मगर जैसे ही एक बार पकड़े हुए भक्ष्य को छोड़ने के लिए कभी तैयार नहीं होता, वैसे ही मन भी उन घटनाओं को छोड़ने के लिए कभी तैयार नहीं होता। मन की पेटिका में ऐसी घटनाओं के अनेक महीन रेशमी वस्त्र रखे रहते हैं, जिन्हें हमेशा सजोकर रखना रहता है।
श्री राकेश वर्माजी भले ही इस दुनिया में न हो, लेकिन उनकी कार्य के प्रति समर्पण भावना सैकड़ों युवाओं का पथ प्रदर्शित करती रहेगी। सीधे जमीन से उठा यह इंसान अपनी लगन और मेहनत के बूते पर बुलंदियों के आसमान पर जा बैठा था। उनके पास विरासत में ऐसा कुछ नहीं िमला था, जिसके बूते पर वह अपने आप को बुलंदियों तक ले जा सके। गुरबत के िदनों में उन्होंने लोगों के कपड़े सिल और रात में किताबों की बाइडिंग करके अतिरिक्त आय कमाई ताकि किशोरावस्था में पढ़ाई पूरी हो सके। आज मिलियन डॉलरवर्थ वाली अमेरिकी सॉफ्टवेयर कम्पनी के सीईओ और संस्थापक राकेश वर्माजी से जरा भी परिचित हैं, उन्हें ये पढ़कर आश्चर्य होगा कि उनकी शिक्षा बहुत ही साधारण स्कूल में हुई और बाद में उन्होंने इंदौर के ख्यात संस्थान जीएसआईटीएस से इलेक्ट्रॉनिक विषय में बीई किया।
इंदौर से वे आईआईटी मुंबई पहुँचे और इलेक्ट्रॉनिक के बजाय कम्प्यूटर साइंस में एमटेक किया। वे इस बात को जान चुके थे (1979) कि भविष्य में कम्प्यूटर का ही जमाना आने वाला है। राकेशजी का सफर बेहद रोमांचकारी है। उन्होंने स्टील ट्यूब ऑफ इंडिया से जुड़कर बिजनेस और फाइनेंस के गुर सीखे बाद में उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च ज्वाइन किया। यहीं पर उन्होंने गाँव के टेलीफोन एक्सचेंज के लिए सॉफ्टवेयर लिखा। राकेशजी बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। वे इंजीनियर, वैज्ञानिक और लेखक थे।
70 के दशक में पूरे हिन्दुस्तान के साहित्य दिल पर 'धर्मयुग' नामक पत्रिका का राज था और डॉ. धर्मवीर भारती की अगुआई में टाइम्स ऑफ इंडिया की यह अव्वल पत्रिका धूम मचा रही थी, उसी दौर में श्री राकेशजी के लेख 'धर्मयुग' में प्रकाशित होते थे।
बाद में उन्होंने सॉफ्टवेयर कम्पनी 'एजटेक' की स्थापना की। हादसे के बाद व्हीलचेयर और पत्नी श्रीमती प्रेरणा वर्मा ही उनका सहारा थी, लेकिन इस अवस्था में भी उनकी सोच का दायरा असीमित था। उनकी दिली तमन्ना थी िक वे अपनी 'आत्मकथा' लिखे (बोलकर िलखने), इसके लिए नए क्रांतिकारी सॉफ्टवेयर लिखने (बोलकर लिखने) की योजना भी बना रहे थे, लेकिन उनके निधन के साथ ही यह योजना भी काल के गर्भ में समाँ गई।
हिन्दू रीति से जब विवाह होता है तो सात फेरों के संग जिंदगी भर सुख-दु:ख में साथ निभाने का वादा लिया जाता है, श्री वर्माजी का विवाह श्रीमती प्रेरणाजी से हुआ और उनके समर्पण और पति के प्रति प्रेम अगर किसी ने देखा है, तो वह मैं हूँ, इतना समर्पण आज तक मैंने किसी भी पत्नी में नहीं देखा (मेरी पत्नी मैं भी नहीं)। ऑफिस के काम भी हम दोपहर 2 बजे के बाद ही करते थे, कारण वह अपने पति श्री वर्माजी की सेवा तल्लीन रहती थीं।
संजय लीला भंसालीजी की फिल्म गुजारिश में बहुत कमियाँ है, इसलिए तो बॉक्स ऑफिस पर फैल हो गई, उन्हें अगर गुजारिश फिल्म बनानी थी तो वह इंदौर आकर प्रेरणा वर्मा और राकेशजी के प्रेम और समर्पण भाव को देखते तो... मेरा यकीन है, यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर पहले दिन की तीन गुना मुनाफा कमाती। इन्होंने तो आज यह फिल्म बनाई है, जबकि हमारे वर्माजी लगभग 7 साल पहले किसी दुर्घटना में बर्फ पर फिसल गए थे, जिसके कारण उनके शरीर ने काम करना बंद कर दिया था। उस समय से प्रेरणा वर्माजी उनके साथ वह कर रही थी, जो फिल्म में दिखाया ही नहीं गया। उनकी हर जरूरत उनसे शुरु होती थी और अंत भी उनकी बात के साथ ही होता था।
मेरा सोचना है कि प्रेरणा जी उन्होंने विगत दिसम्बर 2009 में भारत इसलिए लाई थी कि उनका स्वास्थ्य मालवा की मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू उनके शरीर को उर्जा से भर देगी, उनके प्रयत्न और प्रयास को मैंने देखा, श्रीमती प्रेरणा वर्मा है बहुत ही शालीन और अगर कहाँ जाए तो हिन्दुस्तानी पत्नी, जो 20 सालों से अमेरिका में रहती है, परन्तु इंदौर यानी मालवा की माटी और सौंधी सुगंधी की महक आज भी उनके दिल में बसी हुई है। प्रेरणा वर्मा जी ने जितनी मेहनत और लगन से राकेशजी और कम्पनी को सँभाला हैं, वह वाकई तारीफ के काबिल हैं। राकेशजी की किसी भी विषय वस्तु में कमी नहीं की गई, परन्तु ईश्वर की मर्जी के सामने हम सभी विवश होते हैं। प्रयास हमारे होते हैं, पर िनर्णय तो ईश्वर ही लेता है। 8 दिसम्बर 2010 को श्री राकेशजी हम सभी का साथ छोड़कर ईश्वर के घर की और रुख कर गए।
श्री राकेशजी नाम का यह बहुआयामी व्यक्तित्व आज भले ही हमारे बीच नहीं है, लेकिन जहाँ तक उनके कर्म की यात्रा है, वह युग-युगांतर जारी रहेगी। हमारे साथ, हमारी स्मृतियों के साथ। उनके चले जाने के बाद भी कई बार महसूस होता है, वे कहीं नहीं गए, एक अदृश्य शक्ति पता नहीं क्यों आव्हान करती है, वे हमारे पास ही है, यहीं आसपास....।
-राजेन्द्र कुशवाह
Thursday, September 23, 2010
सिर्फ 'तुम' और 'मैं'...
प्रिय जानम...
अरे नहीं... कोई देख लेगा..
तुम्हारे ये वाक्य आज भी
मेरे कानों में
गूँजते हैं... भले ही इन्हें
एक दशक से ज्यादा हो गया...
तुम्हारे सूर्ख लवों का
वो एहसास... आज भी मेरे
लवों पर हैं...
मेरे स्पर्श मात्र से
काँपते हुए तुम्हारे
होंठ ... और गर्म होती तुम्हारी साँसें
धीरे से हल्के से मेरा तुम्हें छूना...
और तुम्हारा वो छिंटक कर दूर जाना...
सच में नहीं भूला पाया तुम्हारे
उन एहसासों को...
तुम नहीं हो तो क्या हुआ
आज भी तुम्हारे
एहसासों के साथ जी रहा हूँ...
सिर्फ तुम्हारा 'राज'
Thursday, September 9, 2010
प्यार ....
कितना छोटा हो गया है,
प्यार का दायरा।
अब प्यार सिर्फ अपने लिए
किया जाता है, प्यार के लिए नहीं।
तभी तो प्यार अब खुशी नहीं देता,
अकेलापन देता है और,
इंसान अपनों के बीच, भीड़ में भी,
रह जाता है अकेला निस्पृह, निस्पंद,
एक टापू की तरह।
प्यार का दायरा।
अब प्यार सिर्फ अपने लिए
किया जाता है, प्यार के लिए नहीं।
तभी तो प्यार अब खुशी नहीं देता,
अकेलापन देता है और,
इंसान अपनों के बीच, भीड़ में भी,
रह जाता है अकेला निस्पृह, निस्पंद,
एक टापू की तरह।
Thursday, July 29, 2010
वासनाओं के रिश्ते, मरते हैं अपने
आज के तेजी से बदलते दौर में हमें कहीं न कहीं से ऐसी घटनाओं की जानकारी मिलती हैं, जिसे सुनकर दिल और दिमाग दोनों ही काम करना बंद कर देते हैं। आज समझ में नहीं आता है कि किस पर भरोसा किया जाए। पहले तो बात दूसरे लोगों की होती थी, लेकिन आज तो अपने ही इन गंदी और घिनौनी गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। जहाँ तक मेरा सोचना हैं कि लोगों में अब वो बात नहीं रही, जो विगत समय के लोगों में रहा करती थी, आज हम भले ही 21वीं सदी की ओर अग्रसर हो रहे हैं, लेकिन कहीं न कहीं हम अपनी पहचान और मर्यादाओं का भरपूर उल्लंघन कर रहे हैं। क्या हम मर्यादा में रहकर 21वीं सदी की ओर अग्रसर नहीं हो सकते?
हाल ही में एक घटनाक्रम अखबार की सुर्खियों में छाया कि इंदौर में रहने वाले एक लड़के का अपहरण हो गया हैं। उसकी माँ ने उसकी गुमशुदी की रिपोर्ट थाने में लिखाई। कुछ समय के बाद उन्हें फोन आया कि आपके लड़के का अपहरण कर फिरौती के रूप में रुपए 4.50 लाख दें। फिर जैसा कि हमारे यहाँ की पुलिस कार्य करती हैं, पूरी मुश्तैदी के साथ कार्य किया और लड़के के एक रिश्तेदार पर शंक हुआ, जो कि घटनाक्रम के बाद पूरे समय परिवार के साथ ही रहा और परिवार के लोगों को संवेदनाएँ देता रहा।
पुलिस तो अपने बाप की भी नहीं होती हैं, उन्होंने सभी बातों को गौर कर नौशाद नामक व्यक्ति को पकड़ा और सख्ती से पूछताछ की गई। जैसा कि आप सभी जानते ही हैं कि (फिल्मों में देखा है कि नहीं) पुलिस किस तरह से धोती हैं। बदन तार-तार कर देती हैं। बंदे ने सारी कहानी बता दी।
कहानी कुछ इस तरह से थी कि नौशाद ने ही लड़के को फोन करके बुलाया और उसकी हत्या करके गाड़ दिया था। नौशाद के मृतक की माँ, जो कि उम्र में 40-45 साल की होगी से अवैध संबंध थे। ये दोनों माँ और बेटे अकेले रहते थे। मृतक के पिता का देहांत वर्षों पहले हो गया था, जब मृतक अपनी माँ के पेट में ही था। अभी हाल ही मैं उन्होंने अपने गाँव की जमीन 15 लाख रुपए में बेची थी। साथ ही उसका बारिश के बाद विवाह होने वाला था। नौशाद जो कि मृतक की माँ का प्रेमी था या ये कहें कि उसके अवैध संबंध थे, तो कोई बुरी बात नहीं होगी, क्योंकि प्रेमी शब्द की संज्ञा देना गलत होगा। नौशाद के मन में एक तो रुपयों का लालच घर कर गया दूसरी बात उसे यह चुभी की मृतक शादी करने वाला हैं, तो उसका तो पूरी तरह से पत्ता ही कट था। क्योंकि घर में बहू के आ जाने से उनके अवैध संबंधों को भी खतरा था। चलो यह काम तो वो कहीं भी निपटा सकते थे, परन्तु रुपए तो हाथ से जा रहे थे। यदि यह हट जाता हैं, तो रुपए भी अपने और शारीरिक संबंध भी अपने।
यह सच हैं कि सैक्स शरीर की जरूरत है, परन्तु क्या हम ऐसे संबंध बनाना उचित समझें, जिससे कि अपनों की ही जान चली जाए और हमारे पास शून्य के अलावा कुछ भी शेष न रहे। नौशाद तो अपने पापों की सजा भुगतेगा ही... साथ ही उस औरत का क्या जिसने ढलती उम्र में अपने जवान बेटे को खो दिया। अब क्या शेष रह गया .... चंद रुपए, जो कि जैसा-जैसा समय बीतेगा... रुपए घटेंगे ही।
मैं आप सभी पाठकों से पूछता हूँ कि क्या ऐसे संबंध ठीक हैं, जो कि इस तरह के घटनाक्रम को जन्म देते हैं?
-राजेन्द्र कुशवाह
हाल ही में एक घटनाक्रम अखबार की सुर्खियों में छाया कि इंदौर में रहने वाले एक लड़के का अपहरण हो गया हैं। उसकी माँ ने उसकी गुमशुदी की रिपोर्ट थाने में लिखाई। कुछ समय के बाद उन्हें फोन आया कि आपके लड़के का अपहरण कर फिरौती के रूप में रुपए 4.50 लाख दें। फिर जैसा कि हमारे यहाँ की पुलिस कार्य करती हैं, पूरी मुश्तैदी के साथ कार्य किया और लड़के के एक रिश्तेदार पर शंक हुआ, जो कि घटनाक्रम के बाद पूरे समय परिवार के साथ ही रहा और परिवार के लोगों को संवेदनाएँ देता रहा।
पुलिस तो अपने बाप की भी नहीं होती हैं, उन्होंने सभी बातों को गौर कर नौशाद नामक व्यक्ति को पकड़ा और सख्ती से पूछताछ की गई। जैसा कि आप सभी जानते ही हैं कि (फिल्मों में देखा है कि नहीं) पुलिस किस तरह से धोती हैं। बदन तार-तार कर देती हैं। बंदे ने सारी कहानी बता दी।
कहानी कुछ इस तरह से थी कि नौशाद ने ही लड़के को फोन करके बुलाया और उसकी हत्या करके गाड़ दिया था। नौशाद के मृतक की माँ, जो कि उम्र में 40-45 साल की होगी से अवैध संबंध थे। ये दोनों माँ और बेटे अकेले रहते थे। मृतक के पिता का देहांत वर्षों पहले हो गया था, जब मृतक अपनी माँ के पेट में ही था। अभी हाल ही मैं उन्होंने अपने गाँव की जमीन 15 लाख रुपए में बेची थी। साथ ही उसका बारिश के बाद विवाह होने वाला था। नौशाद जो कि मृतक की माँ का प्रेमी था या ये कहें कि उसके अवैध संबंध थे, तो कोई बुरी बात नहीं होगी, क्योंकि प्रेमी शब्द की संज्ञा देना गलत होगा। नौशाद के मन में एक तो रुपयों का लालच घर कर गया दूसरी बात उसे यह चुभी की मृतक शादी करने वाला हैं, तो उसका तो पूरी तरह से पत्ता ही कट था। क्योंकि घर में बहू के आ जाने से उनके अवैध संबंधों को भी खतरा था। चलो यह काम तो वो कहीं भी निपटा सकते थे, परन्तु रुपए तो हाथ से जा रहे थे। यदि यह हट जाता हैं, तो रुपए भी अपने और शारीरिक संबंध भी अपने।
यह सच हैं कि सैक्स शरीर की जरूरत है, परन्तु क्या हम ऐसे संबंध बनाना उचित समझें, जिससे कि अपनों की ही जान चली जाए और हमारे पास शून्य के अलावा कुछ भी शेष न रहे। नौशाद तो अपने पापों की सजा भुगतेगा ही... साथ ही उस औरत का क्या जिसने ढलती उम्र में अपने जवान बेटे को खो दिया। अब क्या शेष रह गया .... चंद रुपए, जो कि जैसा-जैसा समय बीतेगा... रुपए घटेंगे ही।
मैं आप सभी पाठकों से पूछता हूँ कि क्या ऐसे संबंध ठीक हैं, जो कि इस तरह के घटनाक्रम को जन्म देते हैं?
-राजेन्द्र कुशवाह
Saturday, July 10, 2010
अपराध और व्यवस्था....
इंदौर में अपराधों का ग्राफ यदि देखा जाए तो विगत कुछ वर्षों से लगातार दिन दुगनी रात चौगुनी की तरह अपने पैर फैला रहा हैं। अपराध और अपराधी दोनों की बेहतरीन जुगलबंदी चल रही हैं। आम व्यक्ति को समझ ही नहीं आ रहा हैं कि शांति और स्वाद के नाम से मशहूर शहर अब अपराधों के कारण सुर्खियों में हैं। बड़ों की तो बात ही अलग हैं मासूस बच्चे भी इन अपराधियों की नजर में हैं। क्या वहशीहत इतनी अधिक बढ़ गई हैं कि 2-7 साल तक की बच्चियों को ये लोग अपना हवस का शिकार बना रहे हैं। यही नहीं यह अपराध होने के बाद हम पुलिस और प्रशासन को दोष अवश्य देते हैं। बेचारे वे भी क्या करें कहाँ-कहाँ तक दौड़ लगाएँ। हर गली मोहल्ले और कॉलोनियों में अपराधी बसे हैं।
अपराधी वो नहीं जिसने अपराध किया हैं। अपराधी तो वे भी है, जिन्होंने इन अपराधियों को अपराध करते देखा और नजरअंदाज कर दिया। सजा पाने के तो ये भी हकदार हैं। रही बात व्यवस्था कि तो पुलिस प्रशासन अपनी तरफ से बिल्कुल कोशिश करता हैं। भले ही वह देर से आएँ लेकिन अपना काम बड़ी ही मुश्तैदी के साथ शुरू करते हैं। लाव-लश्कर के साथ आते हैं, तहकीकात करते हैं, पंचनामें बनते हैं, अपराधियों को ढ़ूंढ़ने के लिए खोजी दल बनाए जाते हैं। जरूरत पड़ने पर आसपड़ोस की जगह पर भी जाते हैं। भाई आप पुलिस के काम को दोष मत देना हैं। हाँ यह बात और है कि हमारे शहर के प्रमुख पुलिस विभाग के अधिकारी ने कहाँ है कि अब समय आ गया है कि गधों को पीछे कर घोड़ों को आगे किया जाएगा। इस विषय में तो आप लोग उन्हीं से सवाल-जवाब करे तो बेहतर होगा। नहीं तो क्या पता मुझे भी कहीं इन प्रक्रियाओं से न गुजरना पड़े।
इन अपराधों के पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं। पारिवारिक विवाद, आपसी रंजिश, लेनदेन, प्रेम प्रसंग, रस्साकशी यानी कि आप सोच भी नहीं सकते हैं ऐसे बहुत से कारण हैं। यदि देखा जाए तो आदमी की मानसिक स्थिति बिगड़ चुकी हैं। एक तो महँगाई इतनी बढ़ा दी हैं कि बेचारा आम आदमी अब दाल रोटी की भी बात करने से कतराता हैं। हाँ, हमारे सरकारी गोदामों में अनाज भले ही सड़ जाए या गल जाएँ कोई फर्क नहीं पड़ता हैं। गरीब का बच्चा जरूर कुपोषण के शिकार से मर जाता हैं, लेकिन आनाज के गोदामों के चूहों को देखकर व्यक्ति डर ही जाए, पहली नजर में तो वे चूहे नजर ही नहीं आते हैं। ऐसा लगता है कि खरगोश घूम रहा हैं। पर खरगोश और चूहों में अंतर नजर आ ही जाता हैं पर गौर से देखने पर। सरकार को भी कर्मचारियों की मिली भगत और जमाखोरी के चलते बड़े ही सोच समझकर कदम उठाना पड़ता हैं। ये काम इतनी चालाकी से किए जाते हैं कि आम व्यक्ति के पल्ले कुछ पड़ता ही नहीं हैं। मतलब ये हैं कि सारे कुएँ में भाँग मिली हुई हैं।
यदि वाकई में अपराधों के ग्राफ को कम करना हैं, तो हमें ही आगे बढ़ना होगा। हमारे आसपास नजर रखना अत्यन्त ही आवश्यक हैं। कहीं भी कोई संदिग्ध व्यक्ति नजर आता हैं, तो तुरंत ही पुलिस को सूचित करें। इस बात को बिल्कुल भी नजर अंदाज न करें। क्यों यदि हम सजग रहेंगे, तब ही काम बनेगा।
- राजेन्द्र कुशवाह
अपराधी वो नहीं जिसने अपराध किया हैं। अपराधी तो वे भी है, जिन्होंने इन अपराधियों को अपराध करते देखा और नजरअंदाज कर दिया। सजा पाने के तो ये भी हकदार हैं। रही बात व्यवस्था कि तो पुलिस प्रशासन अपनी तरफ से बिल्कुल कोशिश करता हैं। भले ही वह देर से आएँ लेकिन अपना काम बड़ी ही मुश्तैदी के साथ शुरू करते हैं। लाव-लश्कर के साथ आते हैं, तहकीकात करते हैं, पंचनामें बनते हैं, अपराधियों को ढ़ूंढ़ने के लिए खोजी दल बनाए जाते हैं। जरूरत पड़ने पर आसपड़ोस की जगह पर भी जाते हैं। भाई आप पुलिस के काम को दोष मत देना हैं। हाँ यह बात और है कि हमारे शहर के प्रमुख पुलिस विभाग के अधिकारी ने कहाँ है कि अब समय आ गया है कि गधों को पीछे कर घोड़ों को आगे किया जाएगा। इस विषय में तो आप लोग उन्हीं से सवाल-जवाब करे तो बेहतर होगा। नहीं तो क्या पता मुझे भी कहीं इन प्रक्रियाओं से न गुजरना पड़े।
इन अपराधों के पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं। पारिवारिक विवाद, आपसी रंजिश, लेनदेन, प्रेम प्रसंग, रस्साकशी यानी कि आप सोच भी नहीं सकते हैं ऐसे बहुत से कारण हैं। यदि देखा जाए तो आदमी की मानसिक स्थिति बिगड़ चुकी हैं। एक तो महँगाई इतनी बढ़ा दी हैं कि बेचारा आम आदमी अब दाल रोटी की भी बात करने से कतराता हैं। हाँ, हमारे सरकारी गोदामों में अनाज भले ही सड़ जाए या गल जाएँ कोई फर्क नहीं पड़ता हैं। गरीब का बच्चा जरूर कुपोषण के शिकार से मर जाता हैं, लेकिन आनाज के गोदामों के चूहों को देखकर व्यक्ति डर ही जाए, पहली नजर में तो वे चूहे नजर ही नहीं आते हैं। ऐसा लगता है कि खरगोश घूम रहा हैं। पर खरगोश और चूहों में अंतर नजर आ ही जाता हैं पर गौर से देखने पर। सरकार को भी कर्मचारियों की मिली भगत और जमाखोरी के चलते बड़े ही सोच समझकर कदम उठाना पड़ता हैं। ये काम इतनी चालाकी से किए जाते हैं कि आम व्यक्ति के पल्ले कुछ पड़ता ही नहीं हैं। मतलब ये हैं कि सारे कुएँ में भाँग मिली हुई हैं।
यदि वाकई में अपराधों के ग्राफ को कम करना हैं, तो हमें ही आगे बढ़ना होगा। हमारे आसपास नजर रखना अत्यन्त ही आवश्यक हैं। कहीं भी कोई संदिग्ध व्यक्ति नजर आता हैं, तो तुरंत ही पुलिस को सूचित करें। इस बात को बिल्कुल भी नजर अंदाज न करें। क्यों यदि हम सजग रहेंगे, तब ही काम बनेगा।
- राजेन्द्र कुशवाह
Saturday, July 3, 2010
सजा तो वाकई में यही निश्चित हो....
अभी हाल ही में एक ब्लॉग जिसका url http:\\objectionmelord.blogspot.com पढ़ने में आया। उसमें निर्मलाजी ने बहुत ही अच्छी बात लिखी की बच्चों की दीक्षा क्यों? आप लोग भी उसे पढ़े और अपनी राय व्यक्त करें। उसे पड़ने के बाद लगा कि वाकई में लेखिकाजी ने सच्चाई व्यक्त की हैं।
साथ ही एक बात से और रूबरू कराना चाहूँगा कि मैं इंदौर में रहता हूँ, हालाँकि इंदौर का रहवासी नहीं था, लेकिन अब 12 सालों से इंदौर में हूँ तो यही का रहवासी हो गया हूँ। विगत लगभग 3-4 दिन पहले की घटना ने समूचे इंदौर को हिला दिया। घटना शायद आप लोगों ने अखबारों के माध्यम से पढ़ी भी होगी। यदि नहीं तो मैं आपको बताना चाहूँगा... ये ऐसी पहली घटना नहीं हैं। ऐसी बहुत सी घटनाएँ हो चुकी हैं। और वो भी इंदौर में ही, अन्यत्र जगह की तो बात ही नहीं कर रहा हूँ।
घटना कुछ इस प्रकार थी कि एक लड़का किराए के मकान में रहता था, उसने उसे मकान मालिक की सात वर्षीय बालिका के साथ दुष्कृत्य कर उसका गला घोंट दिया था। परिजन परेशान थे, लगभग दो दिन के बाद उनकी लड़की बोरे में बंद उनके घर के सामने सुबह मिली, जिसे देखकर सारे घर के सारे लोग हतप्रभ रह गए। फिर वही होता है, पंचनामा बनना और पुलिस तफतीश, पोस्टमार्टम। संदेह के तौर पर लड़के से पूछताछ की और उसने अपना जुर्भ कबूल लिया। साथ ही उसके माता-पिता को भी पुलिस ने साक्ष्य छुपाने के जुर्म में अंदर कर दिया।
बात यही खत्म नहीं हो जाती हैं कि उस लड़की के साथ इस तरह की घटना हुई हैं। सोचनीय बात तो यह है कि क्या हम इस तरह की घटना को आपसी सहयोग से किस तरह से हल कर सकते हैं। आज ऐसे बहुत से माँ-बाप हैं, जो रोजी-रोटी कमाने हेतु दिन में ऑफिस या अन्य जगह कार्य करने जाते हैं, ऐसे में यदि घर में बेटी हो, तो उनकी चिंता बहुत ही बढ़ जाना स्वाभाविक होता है। क्या आज का व्यक्ति इतना वहशी हो गया है कि वो मासूमों के चेहरे की तरफ ही नहीं देखता और वो कृत्य कर जाता हैं, जिसकी सारी दुनिया में थू-थू होती हैं। सच कहूँ तो मेरा तो दिल ही कँप जाता हैं, ऐसी घटनाओं को सुनने के बाद। जब मेरा यह हाल हैं, तो उन माँ-बाप के दिल पर क्या गुजरी होगी, जो इस तरह के घटनाक्रम से रूबरू हुए होंगे।
इसी तरह की उथल-पुथल मेरे मन में चल रही थी, फिर सोचा कि आप लोगों से इस बात को शेयर करके कुछ मार्गदर्शन प्राप्त कर लूँ, साथ ही आप लोगों को भी सचेत करूँ कि इन घटनाओं की पुनर्वृत्ति न हो।
यह सच है कि हमारे देश में बहुत सालों पहले जातिवाद, छुआछूत, धार्मिक विवाद एवं कष्टप्रद परंपराएँ चलती थी, जो कि आज के समय में बहुत कम दिखाई देती हैं, फिर भी इस तरह की घटनाओं से मन व्यथित जरूर होता हैं।
मैंने हाल ही में एक फिल्म देखी, फिल्म का नाम था, प्रेमग्रंथ। किसी ने सच ही कहा है कि सिनेमा हमारे समाज का दर्पण हैं, जो घटित होता है, वही परदे पर दिखाया जाता हैं। फिल्म का सारांश संक्षेप में बताता हूँ कि पहले के जमाने में छुआछूत, ऊँच-नीच बहुत माना करते थे। गाँव के महंत या आचार्य कहें, उन्हें सोने में तुलना और परंपराओं का निर्वाह करना आदि बहुत महत्वपूर्ण था। उनके चम्मचों से वह दिन-रात घिरे रहते थे, चम्मचे उन्हें कई बार गुमराह भी किया करते थे। उन्हीं का बेटा जो कि इस तरह की बातों में विश्वास नहीं रखता था। गाँव में मेला लगा हुआ रहता हैं, और उस मेले में नीची जाति के लोगों के लिए भगवान के दर्शन करने हेतु अलग से लाइन लगी होती हैं, इन्हीं सब बातों से क्षुब्द होकर वह भगवान की मूर्ति को लेकर पुराने में मंदिर में रखने जाता हैं, इसी समय एक गरीब लड़की उनके सामने गिर जाती हैं, लेकिन वह उसे उठाकर भगवान श्रीराम की मूर्ति उसे देकर मंदिर में प्रतिस्थापित करने को कहते हैं।
यही से उनके प्रेम की शुरुआत होती हैं, लेकिन मेला खत्म होते ही वह लोग चले जाते हैं। इसी समय जब यह वापिस हो रहे होते हैं, तो कुछ लोग उस लड़की को उठाकर ले जाते हैं और बलात्कार करके छोड़ देते हैं। यह बात उसके पिता को चलती हैं, तो उसे लेकर घर आते हैं। लेकिन घर पर भी क्या वही लोकलाज का डर। गर्भपात कराना आदि इन सब बातों का सामना होता हैं। वह घर से निकाल दी जाती हैं, और दर-दर की ठोकर खाकर बच्चे को जन्म देती हैं, लेकिन बच्चा भी मर जाता हैं, पर उसे दफनाने के लिए भी जगह नहीं मिलती हैं। धर्म की ध्वजा संभाले हुए गाँव के आचार्य भी उसे शमशान में बच्चे का दहा संस्कार करने से मना कर देते हैं। बहुत ही मार्मिक दृश्य था यह। पर इसमें उसका या उस बच्चे का क्या दोष था। उसने तो हर बात को अपने अनुकूल मान लिया था। बलात्कार किसी ने िकया था, लेकिन सजा उसे और उस बच्चे को मिली।
बात आगे बढ़ती हैं। तमाम बातें घटती हैं। जो आचार्यजी थे उनके बेटे को उस लड़की से प्रेम हो जाता हैं। सारी बातें सामने आ जाती हैं। उसके जीवन की सारी कहानी लड़के को मालूम चलती हैं। तब कहीं जाकर वह लड़की रूपसाहाय नामक व्यक्ति जिसने की उसकी आबरू से खिलवाड़ किया था, उसके यह शब्द कि यदि कोई मर्द किसी का बलात्कार करता हैं, तो उसे यह सोच लेना चाहिए कि वह आत्महत्या कर रहा हैं।
कहने का सारांश यह है कि यदि वाकई में कोई मर्द किसी महिला के साथ जर्बदस्ती करता हैं, तो उसे सरे आम गोली मार देना चाहिए। तभी हम इस तरह की घटनाओं पर लगाम कस सकते हैं। समझ नहीं आता है कि हमारा कानून इतना पेचीदा और मुश्किल भरा क्यों हैं। न्याय पाने के लिए पता नहीं कितने साल लग जाते हैं।
मेरा तो मत है कि इस तरह की घटनाएँ यदि किसी मासूम के साथ होती हैं, तो उस आदमी को बीच चौराहे पर फाँसी की सजा मुकरर की जाना चाहिए। साथ ही दोस्तों हमें हमारे आसपास स्थित इस रह रही मासूमों का ध्यान रखना चाहिए। यदि यह जन सहयोग रहा तो हम इन घटनाओं पर अंकुश लगा सकते हैं।
- राजेन्द्र कुशवाह
Friday, July 2, 2010
गलती मुझसे हुई
हाँ मैं मानता हूँ कि
गलती मुझसे हुई
पर तुम भी भागीदार
थी, मेरी गलती मैं
तुम जब जानती हो कि मैं हूँ
उस जहान का
जहाँ से मुझे मतलब नहीं,
फिर भी मैं
जुडा रहा तुम्हारे जहान से
जानने की कोशिश भी नहीं की...
चाहता तो, तो तुम्हारा सारा जहान
मेरा अपना था, मैं सब कुछ जान सकता था
पर, तुम्हारी अपनी इच्छा नहीं थी
फिर कैसे गुस्ताखी कर सकता था...
कुछ लोग मेरे अपने थे
कुछ अजनबी थे....
फिर मैं तुम्हारी और मेरी
बात को कैसे जग
जाहिर करता....
पर अब तुम मुझे जानती हो
चेहरे से पहचानती हो
फिर भी क्यों मेरी अनजानी-सी
गलती को स्वीकार
नहीं करती हो...
मैं बात नही करूंगा... तुमसे
बात करोगी तुम, मुझसे
तब ही, हम मिलेगे, तुमसे
'राज '
Wednesday, June 30, 2010
मैं समर्पित भी हूँ और कृतज्ञ भी हूँ
ये दोनों शब्द मेरे दिलो-दिमाग में बहुत लम्बे समय से घूम रहे थे। कारण था कि मुझे अपने जॉब से टर्मिनेट कर दिया गया थाऔर फिर मेरे जेहन में समर्पण और कृतज्ञता के भाव आपस में जूझ रहे थे। मैं कृतज्ञ था उन लोगों के प्रति जिन्होंने मुझे काफी सहयोग किया, मेरे काम में सहयोग किया। साथ ही समर्पित था अपने जॉब के प्रति, पर कहते हैं कि समय कहकर नहीं आता। कभी-भी किसी-भी पल कुछ भी घट सकता है।
परिस्थितियॉं व्यक्ति को पता नहीं कहॉं से कहॉं तक पहुँचा देती हैं। इतिहास गवाह है इस बात की व्यक्ति फर्श से अर्श पर और अर्श से फर्श पर समय के एक ही झटके में आ जाता हैं। तभी तो हमारे ग्रंथों में कहा गया हैं कि स्त्री चरित्रम्, पुरुष्य भाग्यम्, ब्रह्मा न जानति, मनुष्यम् कुतम्। यह बात एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में भी पूर्णताः चरितार्थ होती है।
जीवन का अनमोल समय मैंने अपने जॉब को समर्पित कर दिया, पूरे 10 साल पूरी लगन और मेहनत से कार्य किया, लेकिन बाद में क्या मिला, कुछ भी नहीं। यह बात भी किसी शायर ने बखूबी कही है कि किस्मत बनाने वाले तूने कमी ना की... किसको क्या मिला ये तो मुकद्दर की बात हैं।
खैर जो होना होता है, वह होकर ही रहता हैं। हम लाख कोशिश कर लें, परन्तु ईश्वर ने जो हमारी किस्मत में लिखा है, वह अवश्य ही होगा। हॉं पर इसमें एक बात आवश्यक रूप से निहित हैं कि हमें अपने कर्म अवश्य करना चाहिए। कर्म यदि नहीं किया तो, फिर ईश्वर भी हमारे लिए कुछ नहीं कर सकता है। क्योंकि भाग्य तो कर्म की बैशाखी का मोहताज होता है। इसलिए कर्म को हमारे शास्त्रों में सर्वोपरि माना गया है।
मैं निराशावादी नहीं हूँ। यदि मेरी किन्हीं बातों से आपको निराशावादी झलकती हैं, तो वह आपका भ्रम होगा। मैं पूर्ण रूप से आशावादी हूँ। हॉं निगेटिव बातें भी व्यक्ति के दिमाग में आती हैं, परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि मैं निराश होकर बैठ जाऊँ। कुछ समय के लिए हम हताश जरूर होते हैं, लेकिन जिंदगी में इस तरह के उतार- चढ़ाव का सामना तो करना ही होगा।
मनुष्य यदि इस मृत्युलोक में आता हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह यहॉं पर सुख भोगने के लिए आया हैं। आप सभी जानते हैं कि यदि स्वर्गलोक में किसी को सजा दी जाती थी, तो वह यह थी कि जाओ मृत्युलोक में तुम फलां वर्ष जी कर आओं। कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि आपको यहॉं अपने कर्मों की सजा भुगतना हैं। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना है कि आपको अच्छे कार्य भी करना है, जो कि आने वाले समय में आपको मोक्ष की ओर अग्रसर कर सके।
मुझे अपने जीवन में किसी से कोई शिकायत ही नहीं रहीं। क्योंकि मुझे अपने ईश्वर पर पूर्ण विश्वास हैं, कहते हैं, ईश्वर जो करता हैं वह अच्छे के लिए ही करता है।
मैं कृतज्ञ हूँ उन सभी पात्रों का जिन्होंने मुझे सहयोग किया और मेरा समर्पण उनके लिए हमेशा रहेगा।
-राजेन्द्र कुशवाह
परिस्थितियॉं व्यक्ति को पता नहीं कहॉं से कहॉं तक पहुँचा देती हैं। इतिहास गवाह है इस बात की व्यक्ति फर्श से अर्श पर और अर्श से फर्श पर समय के एक ही झटके में आ जाता हैं। तभी तो हमारे ग्रंथों में कहा गया हैं कि स्त्री चरित्रम्, पुरुष्य भाग्यम्, ब्रह्मा न जानति, मनुष्यम् कुतम्। यह बात एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में भी पूर्णताः चरितार्थ होती है।
जीवन का अनमोल समय मैंने अपने जॉब को समर्पित कर दिया, पूरे 10 साल पूरी लगन और मेहनत से कार्य किया, लेकिन बाद में क्या मिला, कुछ भी नहीं। यह बात भी किसी शायर ने बखूबी कही है कि किस्मत बनाने वाले तूने कमी ना की... किसको क्या मिला ये तो मुकद्दर की बात हैं।
खैर जो होना होता है, वह होकर ही रहता हैं। हम लाख कोशिश कर लें, परन्तु ईश्वर ने जो हमारी किस्मत में लिखा है, वह अवश्य ही होगा। हॉं पर इसमें एक बात आवश्यक रूप से निहित हैं कि हमें अपने कर्म अवश्य करना चाहिए। कर्म यदि नहीं किया तो, फिर ईश्वर भी हमारे लिए कुछ नहीं कर सकता है। क्योंकि भाग्य तो कर्म की बैशाखी का मोहताज होता है। इसलिए कर्म को हमारे शास्त्रों में सर्वोपरि माना गया है।
मैं निराशावादी नहीं हूँ। यदि मेरी किन्हीं बातों से आपको निराशावादी झलकती हैं, तो वह आपका भ्रम होगा। मैं पूर्ण रूप से आशावादी हूँ। हॉं निगेटिव बातें भी व्यक्ति के दिमाग में आती हैं, परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि मैं निराश होकर बैठ जाऊँ। कुछ समय के लिए हम हताश जरूर होते हैं, लेकिन जिंदगी में इस तरह के उतार- चढ़ाव का सामना तो करना ही होगा।
मनुष्य यदि इस मृत्युलोक में आता हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह यहॉं पर सुख भोगने के लिए आया हैं। आप सभी जानते हैं कि यदि स्वर्गलोक में किसी को सजा दी जाती थी, तो वह यह थी कि जाओ मृत्युलोक में तुम फलां वर्ष जी कर आओं। कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि आपको यहॉं अपने कर्मों की सजा भुगतना हैं। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना है कि आपको अच्छे कार्य भी करना है, जो कि आने वाले समय में आपको मोक्ष की ओर अग्रसर कर सके।
मुझे अपने जीवन में किसी से कोई शिकायत ही नहीं रहीं। क्योंकि मुझे अपने ईश्वर पर पूर्ण विश्वास हैं, कहते हैं, ईश्वर जो करता हैं वह अच्छे के लिए ही करता है।
मैं कृतज्ञ हूँ उन सभी पात्रों का जिन्होंने मुझे सहयोग किया और मेरा समर्पण उनके लिए हमेशा रहेगा।
-राजेन्द्र कुशवाह
Tuesday, June 29, 2010
सजन रे झूठ मत बोलो....
सब टीवी पर यह धारावाहिक काफी लम्बे समय से आ रहा हैं। आप भी देखते हैं और हम भी देखते हैं। क्या कभी आपने उस लेखक की कल्पना को सराहा हैं, जिसने यह धारावाहिक लिखा हैं। इस धारावाहिक का नाम भी बड़ा अजीब सा हैं कि सजन रे झूठ मत बोलो, जबकि सारे पात्र और सारी बातें झूठी हैं।
हाँ माना कि यह हमें हँसाने और गुदगुदाने के लिए एक अच्छा प्रयास हैं, जो बहुत ही सात्विक रूप से हमारा मनोरंजन करता है। जहाँ एक ओर अन्य धारावाहिकों में रोने, किसी के साथ छलकपट करते हुए या अन्य षड़यंत्रकारी कार्य करते हुए दिखाते हैं, उन सबसे बेहतर हैं सब टीवी के सारे धारावाहिक (यह मेरा अपना सोचना हैं)।
हाँ माना कि यह हमें हँसाने और गुदगुदाने के लिए एक अच्छा प्रयास हैं, जो बहुत ही सात्विक रूप से हमारा मनोरंजन करता है। जहाँ एक ओर अन्य धारावाहिकों में रोने, किसी के साथ छलकपट करते हुए या अन्य षड़यंत्रकारी कार्य करते हुए दिखाते हैं, उन सबसे बेहतर हैं सब टीवी के सारे धारावाहिक (यह मेरा अपना सोचना हैं)।
एक झूठे परिवार को बनाकर अपूर्व ने आफत तो मोल ले ली हैं, लेकिन कई बार इन झूठे पात्र, जो िक रूपए लेकर कार्य कर रहे हैं, एक दूसरे के प्रति सगों से ज्यादा व्यवहारिक होते हुए दिखाई देते है,जो वाकई में िदल को छू जाते हैं। जैसे कि प्रीति का पंकज के प्रति एक तरफा प्रेम और पंकज नामक पात्र का अपूर्व के साथ आत्मिक व्यवहार वाकई में सोचने के लिए मजबूर कर देता हैं कि व्यक्ति इतना व्यथित होने के वाबजूद भी अपूर्व का साथ देता हैं।
ऐसे ही पात्र परेश उर्फ बंगाली बाबू ने भी अपनी कला का बेहतरीन प्रदर्शन िकया हैं। चोर होते हुए भी ईमानदारी का परिचय देते हैं और पल्लबी के आसपास ही मंडराते रहते हैं। परेश ने भी अपूर्व के प्रति काफी सहजता और ईमानदारी का परिचय दिया हैं। कई बार परिवार को मुसीबतों से बचाया हैं।
मेरा इस धारावाहिक के प्रति लिखना किसी सीरियल की बुराई करना या भलाई करना नहीं हैं, बल्कि मैं आप सभी का ध्यान इस ओर इंगित करने का प्रयास कर रहा हूँ कि एक झूठे परिवार में अपनापन और अपनत्व की भावना किस तरह से कूटःकूट कर भरी हुई हैं। यदि यही सारी बातें हमारी अपनी रीयल लाइफ में आत्मसात हो जाए तो कितना बेहतर परिवार बनेगा। हम लोग आज छोटी-छोटी बातों को लेकर परेशान होते रहते हैं। साथ ही एक दूसरे के प्रति पराए जैसा व्यवहार करते हैं। मानता हूँ कि रियल लाइफ और पर्दे की लाईफ में बहुत अंतर होता हैं, परन्तु रीयल लाइफ को ही तो पर्दे पर िदखाया जाता हैं।
मैं इस टीवी धारावाहिक के लेखक और अपनी ओर से ढेर सारा साधुवाद देता हूँ। साथ ही आप सभी की टिप्पणियों की अपेक्षा रखता हूँ।
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Monday, June 21, 2010
अब मैं क्या करूँ....
तुम्हें पाने की चाहत में,
एक अर्स बीता दिया मैंने....
तुम अभी तक नहीं आएँ...
शायद तुम हमें नहीं समझ पाएँ
अब तो सिर्फ इंतजार ही शेष हैं...
अब तुम्ही बताओं कि मेरे जज्बात कहाँ तक सेफ हैं....
एक अर्स बीता दिया मैंने....
तुम अभी तक नहीं आएँ...
शायद तुम हमें नहीं समझ पाएँ
अब तो सिर्फ इंतजार ही शेष हैं...
अब तुम्ही बताओं कि मेरे जज्बात कहाँ तक सेफ हैं....
Monday, March 29, 2010
तमन्नाएँ अधूरी रह गई...
यूँ तो हर लम्हें तुम्हारी ही बात होती है...
लेकिन क्या करें,
जब तुम पास नहीं होती हो...
रह गई तमन्नाएँ अधूरी
तुम्हारी चाहत में...
तुम तो पहुँच गईं आसमाँ की बुलन्दियों पर...
हम रह गए यादों की असीम गहराइयों में...
पता नहीं कब उभरेंगें
इन चाहत की जंजीरों से...
तुम्हारी यादें ही बेडि़याँ बन गई हैं
मेरी चाहत से...
आज भी याद हैं, वो तुम्हारा
मुझसे मिलना पहली बार बारिश में भीगे हुए मिलना।
दशकों बाद भी आज... ताजा है तुम्हारी चाहत की
तस्वीर मेरे जहन में...
अब तो उम्र भी इस पड़ाव पर
पहुँच गई हैं...
कि आना तुम्हारा
और न आना तुम्हारा
बस एक ख्वाब बन गया है...
पर इस चाहत का क्या करें...
जो जान बन गई हैं तु्म्हारी...
तुम्हारा राज
लेकिन क्या करें,
जब तुम पास नहीं होती हो...
रह गई तमन्नाएँ अधूरी
तुम्हारी चाहत में...
तुम तो पहुँच गईं आसमाँ की बुलन्दियों पर...
हम रह गए यादों की असीम गहराइयों में...
पता नहीं कब उभरेंगें
इन चाहत की जंजीरों से...
तुम्हारी यादें ही बेडि़याँ बन गई हैं
मेरी चाहत से...
आज भी याद हैं, वो तुम्हारा
मुझसे मिलना पहली बार बारिश में भीगे हुए मिलना।
दशकों बाद भी आज... ताजा है तुम्हारी चाहत की
तस्वीर मेरे जहन में...
अब तो उम्र भी इस पड़ाव पर
पहुँच गई हैं...
कि आना तुम्हारा
और न आना तुम्हारा
बस एक ख्वाब बन गया है...
पर इस चाहत का क्या करें...
जो जान बन गई हैं तु्म्हारी...
तुम्हारा राज
Thursday, March 25, 2010
पुण्य स्मरण डॉट कॉम
कल तक िजनके स्नेह आशीष की घनी छाँव तले हम सुकून पाया करते थे, अचानक वे हमें छोड़कर चल देते हैं। नियति के इस चक्र के समक्ष हम सब बेबस है, लेकिन हम सभी के मन में करूणा और कृतज्ञता के संस्कार उमड़ते हैं कि हमारे यशस्वी प्रियजन जो अब हमारे साथ नहीं हैं, उनकी याद को चिरस्थायी बनाने के लिए क्या किया जाए।
'पुण्य स्मरण' आपकी उन्हीं सम्मानजनक अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का मंच है। यहाँ पर आप अपने बिछड़े हुए प्रियजन को 'शब्द फूलों' के माध्यम से अपने बीच पा सकते हैं। उनकी उपलब्धियाँ, उनके सपने, उनके व्यक्तित्व के अनछुए पहलुओं को कलमबद्ध कर ऑन लाइन कीजिए 'पुण्य स्मरण डॉट कॉम' पर।
दिवंगत आत्मीयजनों की स्मृति को हमेशा संयोए रखने के लिए प्रस्तुत है एक संवेदनशील वेबसाइट। आप भी अपने स्वर्गवासीपूर्वजों की खास जानकारियाँ यहाँ भेज सकते हैं।
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इस वेबसाइट के माध्यम से हम आपके पूर्वज, स्वर्गवासीजनों के आदर्श, उनके सपने, उनकी कर्मठता एवं जुझारूपन से दुनिया के लोगों से रूबरू कराएँगे, िजससे अन्य व्यक्ति उनके कार्यों एवं आदर्शों को आत्मसात करके उनके द्वारा प्रसस्ति मार्ग पर चलकर देश एवं समाज के उत्थान हेतु आगे बढ़ेगे।
पुण्य स्मरण (www.punyasmaran.com) के द्वारा आप कहीं से भी अपने िदवंगतों के लिए श्रद्धांजलि भेज सकते हैं। साथ ही अपने िदवंगतों की जानकारी प्रेषित करें। हम आपको मेल मिलने पर पुण्यस्मरण डॉट कॉम पर ऑन लाइन कर देंगे।
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