Wednesday, June 30, 2010

मैं समर्पित भी हूँ और कृतज्ञ भी हूँ

ये दोनों शब्द मेरे दिलो-दिमाग में बहुत लम्बे समय से घूम रहे थे। कारण था कि मुझे अपने जॉब से टर्मिनेट कर दिया गया थाऔर फिर मेरे जेहन में समर्पण और कृतज्ञता के भाव आपस में जूझ रहे थे। मैं कृतज्ञ था उन लोगों के प्रति जिन्होंने मुझे काफी सहयोग किया, मेरे काम में सहयोग किया। साथ ही समर्पित था अपने जॉब के प्रति, पर कहते हैं कि समय कहकर नहीं आता। कभी-भी किसी-भी पल कुछ भी घट सकता है।

परिस्थितियॉं व्यक्ति को पता नहीं कहॉं से कहॉं तक पहुँचा देती हैं। इतिहास गवाह है इस बात की व्यक्ति फर्श से अर्श पर और अर्श से फर्श पर समय के एक ही झटके में आ जाता हैं। तभी तो हमारे ग्रंथों में कहा गया हैं कि स्त्री चरित्रम्‌, पुरुष्य भाग्यम्‌, ब्रह्मा न जानति, मनुष्यम्‌ कुतम्‌। यह बात एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में भी पूर्णताः चरितार्थ होती है।

जीवन का अनमोल समय मैंने अपने जॉब को समर्पित कर दिया, पूरे 10 साल पूरी लगन और मेहनत से कार्य किया, लेकिन बाद में क्या मिला, कुछ भी नहीं। यह बात भी किसी शायर ने बखूबी कही है कि किस्मत बनाने वाले तूने कमी ना की... किसको क्या मिला ये तो मुकद्दर की बात हैं।

खैर जो होना होता है, वह होकर ही रहता हैं। हम लाख कोशिश कर लें, परन्तु ईश्वर ने जो हमारी किस्मत में लिखा है, वह अवश्य ही होगा। हॉं पर इसमें एक बात आवश्यक रूप से निहित हैं कि हमें अपने कर्म अवश्य करना चाहिए। कर्म यदि नहीं किया तो, फिर ईश्वर भी हमारे लिए कुछ नहीं कर सकता है। क्योंकि भाग्य तो कर्म की बैशाखी का मोहताज होता है। इसलिए कर्म को हमारे शास्त्रों में सर्वोपरि माना गया है।

मैं निराशावादी नहीं हूँ। यदि मेरी किन्हीं बातों से आपको निराशावादी झलकती हैं, तो वह आपका भ्रम होगा। मैं पूर्ण रूप से आशावादी हूँ। हॉं निगेटिव बातें भी व्यक्ति के दिमाग में आती हैं, परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि मैं निराश होकर बैठ जाऊँ। कुछ समय के लिए हम हताश जरूर होते हैं, लेकिन जिंदगी में इस तरह के उतार- चढ़ाव का सामना तो करना ही होगा।

मनुष्य यदि इस मृत्युलोक में आता हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह यहॉं पर सुख भोगने के लिए आया हैं। आप सभी जानते हैं कि यदि स्वर्गलोक में किसी को सजा दी जाती थी, तो वह यह थी कि जाओ मृत्युलोक में तुम फलां वर्ष जी कर आओं। कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि आपको यहॉं अपने कर्मों की सजा भुगतना हैं। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना है कि आपको अच्छे कार्य भी करना है, जो कि आने वाले समय में आपको मोक्ष की ओर अग्रसर कर सके।
मुझे अपने जीवन में किसी से कोई शिकायत ही नहीं रहीं। क्योंकि मुझे अपने ईश्वर पर पूर्ण विश्वास हैं, कहते हैं, ईश्वर जो करता हैं वह अच्छे के लिए ही करता है।

मैं कृतज्ञ हूँ उन सभी पात्रों का जिन्होंने मुझे सहयोग किया और मेरा समर्पण उनके लिए हमेशा रहेगा।

-राजेन्द्र कुशवाह

Tuesday, June 29, 2010

सजन रे झूठ मत बोलो....


सब टीवी पर यह धारावाहिक काफी लम्बे समय से आ रहा हैं। आप भी देखते हैं और हम भी देखते हैं। क्या कभी आपने उस लेखक की कल्पना को सराहा हैं, जिसने यह धारावाहिक लिखा हैं। इस धारावाहिक का नाम भी बड़ा अजीब सा हैं कि सजन रे झूठ मत बोलो, जबकि सारे पात्र और सारी बातें झूठी हैं।
हाँ माना कि यह हमें हँसाने और गुदगुदाने के लिए एक अच्छा प्रयास हैं, जो बहुत ही सात्विक रूप से हमारा मनोरंजन करता है। जहाँ एक ओर अन्य धारावाहिकों में रोने, किसी के साथ छलकपट करते हुए या अन्य षड़यंत्रकारी कार्य करते हुए दिखाते हैं, उन सबसे बेहतर हैं सब टीवी के सारे धारावाहिक (यह मेरा अपना सोचना हैं)।


एक झूठे परिवार को बनाकर अपूर्व ने आफत तो मोल ले ली हैं, लेकिन कई बार इन झूठे पात्र, जो ‍िक रूपए लेकर कार्य कर रहे हैं, एक दूसरे के प्रति सगों से ज्यादा व्यवहारिक होते हुए दिखाई देते है,जो वाकई में ‍िदल को छू जाते हैं। जैसे कि प्रीति का पंकज के प्रति एक तरफा प्रेम और पंकज नामक पात्र का अपूर्व के साथ आत्मिक व्यवहार वाकई में सोचने के लिए मजबूर कर देता हैं कि व्यक्ति इतना व्यथित होने के वाबजूद भी अपूर्व का साथ देता हैं।


ऐसे ही पात्र परेश उर्फ बंगाली बाबू ने भी अपनी कला का बेहतरीन प्रदर्शन ‍िकया हैं। चोर होते हुए भी ईमानदारी का परिचय देते हैं और पल्लबी के आसपास ही मंडराते रहते हैं। परेश ने भी अपूर्व के प्रति काफी सहजता और ईमानदारी का परिचय दिया हैं। कई बार परिवार को मुसीबतों से बचाया हैं।
मेरा इस धारावाहिक के प्रति लिखना किसी सीरियल की बुराई करना या भलाई करना नहीं हैं, बल्कि मैं आप सभी का ध्यान इस ओर इंगित करने का प्रयास कर रहा हूँ कि एक झूठे परिवार में अपनापन और अपनत्व की भावना किस तरह से कूटःकूट कर भरी हुई हैं। यदि यही सारी बातें हमारी अपनी रीयल लाइफ में आत्मसात हो जाए तो कितना बेहतर परिवार बनेगा। हम लोग आज छोटी-छोटी बातों को लेकर परेशान होते रहते हैं। साथ ही एक दूसरे के प्रति पराए जैसा व्यवहार करते हैं। मानता हूँ कि रियल लाइफ और पर्दे की लाईफ में बहुत अंतर होता हैं, परन्तु रीयल लाइफ को ही तो पर्दे पर ‍िदखाया जाता हैं।


मैं इस टीवी धारावाहिक के लेखक और अपनी ओर से ढेर सारा साधुवाद देता हूँ। साथ ही आप सभी की टिप्पणियों की अपेक्षा रखता हूँ।

Monday, June 21, 2010

अब मैं क्या करूँ....

तुम्हें पाने की चाहत में,
एक अर्स बीता दिया मैंने....
तुम अभी तक नहीं आएँ...
शायद तुम हमें नहीं समझ पाएँ

अब तो सिर्फ इंतजार ही शेष हैं...
अब तुम्ही बताओं कि मेरे जज्बात कहाँ तक सेफ हैं....