Thursday, July 29, 2010

वासनाओं के रिश्ते, मरते हैं अपने

आज के तेजी से बदलते दौर में हमें कहीं न कहीं से ऐसी घटनाओं की जानका‍री मिलती हैं, जिसे सुनकर दिल और ‍दिमाग दोनों ही काम करना बंद कर देते हैं। आज समझ में नहीं आता है कि किस पर भरोसा किया जाए। पहले तो बात दूसरे लोगों की होती थी, लेकिन आज तो अपने ही इन गंदी और घिनौनी गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। जहाँ तक मेरा सोचना हैं कि लोगों में अब वो बात नहीं रही, जो विगत समय के लोगों में रहा करती थी, आज हम भले ही 21वीं सदी की ओर अग्रसर हो रहे हैं, लेकिन कहीं न कहीं हम अपनी पहचान और मर्यादाओं का भरपूर उल्लंघन कर रहे हैं। क्या हम मर्यादा में रहकर 21वीं सदी की ओर अग्रसर नहीं हो सकते?

हाल ही में एक घटनाक्रम अखबार की सुर्खियों में छाया कि इंदौर में रहने वाले एक लड़के का अपहरण हो गया हैं। उसकी माँ ने उसकी गुमशुदी की रिपोर्ट थाने में लिखाई। कुछ समय के बाद उन्हें फोन आया कि आपके लड़के का अपहरण कर फिरौती के रूप में रुपए 4.50 लाख दें। फिर जैसा कि हमारे यहाँ की पुलिस कार्य करती हैं, पूरी मुश्तैदी के साथ कार्य किया और लड़के के एक रिश्तेदार पर शंक हुआ, जो कि घटनाक्रम के बाद पूरे समय परिवार के साथ ही रहा और परिवार के लोगों को संवेदनाएँ देता रहा।

पुलिस तो अपने बाप की भी नहीं होती हैं, उन्होंने सभी बातों को गौर कर नौशाद नामक व्यक्ति को पकड़ा और सख्ती से पूछताछ की गई। जैसा कि आप सभी जानते ही हैं कि (फिल्मों में देखा है कि नहीं) पुलिस किस तरह से धोती हैं। बदन तार-तार कर देती हैं। बंदे ने सारी कहानी बता दी।

कहानी कुछ इस तरह से थी कि नौशाद ने ही लड़के को फोन करके बुलाया और उसकी हत्या करके गाड़ दिया था। नौशाद के मृतक की माँ, जो कि उम्र में 40-45 साल की होगी से अवैध संबंध थे। ये दोनों माँ और बेटे अकेले रहते थे। मृतक के पिता का देहांत वर्षों पहले हो गया था, जब मृतक अपनी माँ के पेट में ही था। अभी हाल ही मैं उन्होंने अपने गाँव की जमीन 15 लाख रुपए में बेची थी। साथ ही उसका बारिश के बाद विवाह होने वाला था। नौशाद जो कि मृतक की माँ का प्रेमी था या ये कहें कि उसके अवैध संबंध थे, तो कोई बुरी बात नहीं होगी, क्योंकि प्रेमी शब्द की संज्ञा देना गलत होगा। नौशाद के मन में एक तो रुपयों का लालच घर कर गया दूसरी बात उसे यह चुभी की मृतक शादी करने वाला हैं, तो ‍उसका तो पूरी तरह से पत्ता ही कट था। क्योंकि घर में बहू के आ जाने से उनके अवैध संबंधों को भी खतरा था। चलो यह काम तो वो कहीं भी निपटा सकते थे, परन्तु रुपए तो हाथ से जा रहे थे। यदि यह हट जाता हैं, तो रुपए भी अपने और शारीरिक संबंध भी अपने।

यह सच हैं कि सैक्स शरीर की जरूरत है, परन्तु क्या हम ऐसे संबंध बनाना उचित समझें, जिससे कि अपनों की ही जान चली जाए और हमारे पास शून्य के अलावा कुछ भी शेष न रहे। नौशाद तो अपने पापों की सजा भुगतेगा ही... साथ ही उस औरत का क्या जिसने ढलती उम्र में अपने जवान बेटे को खो दिया। अब क्या शेष रह गया .... चंद रुपए, जो कि जैसा-जैसा समय बीतेगा... रुपए घटेंगे ही।

मैं आप सभी पाठकों से पूछता हूँ कि क्या ऐसे संबंध ठीक हैं, जो कि इस तरह के घटनाक्रम को जन्म देते हैं?

-राजेन्द्र कुशवाह

Saturday, July 10, 2010

अपराध और व्यवस्था....

इंदौर में अपराधों का ग्राफ यदि देखा जाए तो विगत कुछ वर्षों से लगातार दिन दुगनी रात चौगुनी की तरह अपने पैर फैला रहा हैं। अपराध और अपराधी दोनों की बेहतरीन जुगलबंदी चल रही हैं। आम व्यक्ति को समझ ही नहीं आ रहा हैं कि शांति और स्वाद के नाम से मशहूर शहर अब अपराधों के कारण सुर्खियों में हैं। बड़ों की तो बात ही अलग हैं मासूस बच्चे भी इन अपराधियों की नजर में हैं। क्या वहशीहत इतनी अधिक बढ़ गई हैं कि 2-7 साल तक की बच्चियों को ये लोग अपना हवस का शिकार बना रहे हैं। यही नहीं यह अपराध होने के बाद हम पुलिस और प्रशासन को दोष अवश्य देते हैं। बेचारे वे भी क्या करें कहाँ-कहाँ तक दौड़ लगाएँ। हर गली मोहल्ले और कॉलोनियों में अपराधी बसे हैं।

अपराधी वो नहीं जिसने अपराध किया हैं। अपराधी तो वे भी है, जिन्होंने इन अपराधियों को अपराध करते देखा और नजरअंदाज कर दिया। सजा पाने के तो ये भी हकदार हैं। रही बात व्यवस्था कि तो पुलिस प्रशासन अपनी तरफ से बिल्कुल कोशिश करता हैं। भले ही वह देर से आएँ लेकिन अपना काम बड़ी ही मुश्तैदी के साथ शुरू करते हैं। लाव-लश्कर के साथ आते हैं, तहकीकात करते हैं, पंचनामें बनते हैं, अपराधियों को ढ़ूंढ़ने के लिए खोजी दल बनाए जाते हैं। जरूरत पड़ने पर आसपड़ोस की जगह पर भी जाते हैं। भाई आप पुलिस के काम को दोष मत देना हैं। हाँ यह बात और है कि हमारे शहर के प्रमुख पुलिस विभाग के अधिकारी ने कहाँ है कि अब समय आ गया है कि गधों को पीछे कर घोड़ों को आगे किया जाएगा। इस विषय में तो आप लोग उन्हीं से सवाल-जवाब करे तो बेहतर होगा। नहीं तो क्या पता मुझे भी कहीं इन प्रक्रियाओं से न गुजरना पड़े।

इन अपराधों के पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं। पारिवारिक विवाद, आपसी रंजिश, लेनदेन, प्रेम प्रसंग, रस्साकशी यानी कि आप सोच भी नहीं सकते हैं ऐसे बहुत से कारण हैं। यदि देखा जाए तो आदमी की मानसिक स्थिति बिगड़ चुकी हैं। एक तो महँगाई इतनी बढ़ा दी हैं कि बेचारा आम आदमी अब दाल रोटी की भी बात करने से कतराता हैं। हाँ, हमारे सरकारी गोदामों में अनाज भले ही सड़ जाए या गल जाएँ कोई फर्क नहीं पड़ता हैं। गरीब का बच्चा जरूर कुपोषण के शिकार से मर जाता हैं, लेकिन आनाज के गोदामों के चूहों को देखकर व्यक्ति डर ही जाए, पहली नजर में तो वे चूहे नजर ही नहीं आते हैं। ऐसा लगता है कि खरगोश घूम रहा हैं। पर खरगोश और चूहों में अंतर नजर आ ही जाता हैं पर गौर से देखने पर। सरकार को भी कर्मचारियों की मिली भगत और जमाखोरी के चलते बड़े ही सोच समझकर कदम उठाना पड़ता हैं। ये काम इतनी चालाकी से किए जाते हैं कि आम व्यक्ति के पल्ले कुछ पड़ता ही नहीं हैं। मतलब ये हैं कि सारे कुएँ में भाँग मिली हुई हैं।

यदि वाकई में अपराधों के ग्राफ को कम करना हैं, तो हमें ही आगे बढ़ना होगा। हमारे आसपास नजर रखना अत्यन्त ही आवश्यक हैं। कहीं भी कोई संदि‍ग्ध व्यक्ति नजर आता हैं, तो तुरंत ही पुलिस को सूचित करें। इस बात को बिल्कुल भी नजर अंदाज न करें। क्यों यदि हम सजग रहेंगे, तब ही काम बनेगा।

- राजेन्द्र कुशवाह

Saturday, July 3, 2010

सजा तो वाकई में यही निश्चित हो....


अभी हाल ही में एक ब्लॉग जिसका url http:\\objectionmelord.blogspot.com पढ़ने में आया। उसमें निर्मलाजी ने ‍बहुत ही अच्छी बात लिखी की बच्चों की दीक्षा क्यों? आप लोग भी उसे पढ़े और अपनी राय व्यक्त करें। उसे पड़ने के बाद लगा ‍कि वाकई में लेखिकाजी ने सच्चाई व्यक्त की हैं।

साथ ही एक बात से और रूबरू कराना चाहूँगा कि मैं इंदौर में रहता हूँ, हालाँकि इंदौर का रहवासी नहीं था, लेकिन अब 12 सालों से इंदौर में हूँ तो यही का रहवासी हो गया हूँ। विगत लगभग 3-4 दिन पहले की घटना ने समूचे इंदौर को हिला दिया। घटना शायद आप लोगों ने अखबारों के माध्यम से पढ़ी भी होगी। यदि नहीं तो मैं आपको बताना चाहूँगा... ये ऐसी पहली घटना नहीं हैं। ऐसी बहुत सी घटनाएँ हो चुकी हैं। और वो भी इंदौर में ही, अन्यत्र जगह की तो बात ही नहीं कर रहा हूँ।

घटना कुछ इस प्रकार थी कि एक लड़का किराए के मकान में रहता था, उसने उसे मकान मालिक की सात वर्षीय बालिका के साथ दुष्कृत्य कर उसका गला घोंट दिया था। परिजन परेशान थे, लगभग दो दिन के बाद उनकी लड़की बोरे में बंद उनके घर के सामने सुबह मिली, जिसे देखकर सारे घर के सारे लोग हतप्रभ रह गए। फिर वही होता है, पंचनामा बनना और पुलिस तफतीश, पोस्टमार्टम। संदेह के तौर पर लड़के से पूछताछ की और उसने अपना जुर्भ कबूल लिया। साथ ही उसके माता-पिता को भी पुलिस ने साक्ष्य छुपाने के जुर्म में अंदर कर दिया।

बात यही खत्म नहीं हो जाती हैं कि उस लड़की के साथ इस तरह की घटना हुई हैं। सोचनीय बात तो यह है कि क्या हम इस तरह की घटना को आपसी सहयोग से किस तरह से हल कर सकते हैं। आज ऐसे बहुत से माँ-बाप हैं, जो रोजी-रोटी कमाने हेतु दिन में ऑफिस या अन्य जगह कार्य करने जाते हैं, ऐसे में यदि घर में बेटी हो, तो उनकी चिंता बहुत ही बढ़ जाना स्वाभाविक होता है। क्या आज का व्यक्ति इतना वहशी हो गया है कि वो मासूमों के चेहरे की तरफ ही नहीं देखता और वो कृत्य कर जाता हैं, जिसकी सारी दुनिया में थू-थू होती हैं। सच कहूँ तो मेरा तो दिल ही कँप जाता हैं, ऐसी घटनाओं को सुनने के बाद। जब मेरा यह हाल हैं, तो उन माँ-बाप के दिल पर क्या गुजरी होगी, जो इस तरह के घटनाक्रम से रूबरू हुए होंगे।

इसी तरह की उथल-पुथल मेरे मन में चल रही थी, फिर सोचा कि आप लोगों से इस बात को शेयर करके कुछ मार्गदर्शन प्राप्त कर लूँ, साथ ही आप लोगों को भी सचेत करूँ कि इन घटनाओं की पुनर्वृत्ति न हो।

यह सच है कि हमारे देश में बहुत सालों पहले जातिवाद, छुआछूत, धार्मिक विवाद एवं कष्टप्रद परंपराएँ चलती थी, जो कि आज के समय में बहुत कम दिखाई देती हैं, फिर भी इस तरह की घटनाओं से मन व्यथित जरूर होता हैं।

मैंने हाल ही में एक फिल्म देखी, फिल्म का नाम था, प्रेमग्रंथ। किसी ने सच ही कहा है कि सिनेमा हमारे समाज का दर्पण हैं, जो घटित होता है, वही परदे पर दिखाया जाता हैं। फिल्म का सारांश संक्षेप में बताता हूँ कि पहले के जमाने में छुआछूत, ऊँच-नीच बहुत माना करते थे। गाँव के महंत या आचार्य कहें, उन्हें सोने में तुलना और परंपराओं का निर्वाह करना आदि बहुत महत्वपूर्ण था। उनके चम्मचों से वह दिन-रात घिरे रहते थे, चम्मचे उन्हें कई बार गुमराह भी किया करते थे। उन्हीं का बेटा जो कि इस तरह की बातों में विश्वास नहीं रखता था। गाँव में मेला लगा हुआ रहता हैं, और उस मेले में नीची जाति के लोगों के लिए भगवान के दर्शन करने हेतु अलग से लाइन लगी होती हैं, इन्हीं सब बातों से क्षुब्द होकर वह भगवान की मूर्ति को लेकर पुराने में मंदिर में रखने जाता हैं, इसी समय एक गरीब लड़की उनके सामने गिर जाती हैं, लेकिन वह उसे उठाकर भगवान श्रीराम की मूर्ति उसे देकर मंदिर में प्रतिस्थापित करने को कहते हैं।

यही से उनके प्रेम की शुरुआत होती हैं, लेकिन मेला खत्म होते ही वह लोग चले जाते हैं। इसी समय जब यह वापिस हो रहे होते हैं, तो कुछ लोग उस लड़की को उठाकर ले जाते हैं और बलात्कार करके छोड़ देते हैं। यह बात उसके पिता को चलती हैं, तो उसे लेकर घर आते हैं। लेकिन घर पर भी क्या वही लोकलाज का डर। गर्भपात कराना आदि इन सब बातों का सामना होता हैं। वह घर से निकाल दी जाती हैं, और दर-दर की ठोकर खाकर बच्चे को जन्म देती हैं, लेकिन बच्चा भी मर जाता हैं, पर उसे दफनाने के लिए भी जगह नहीं मिलती हैं। धर्म की ध्वजा संभाले हुए गाँव के आचार्य भी उसे शमशान में बच्चे का दहा संस्कार करने से मना कर देते हैं। बहुत ही मार्मिक दृश्‍य था यह। पर इसमें उसका या उस बच्चे का क्या दोष था। उसने तो हर बात को अपने अनुकूल मान लिया था। बलात्कार किसी ने ‍िकया था, लेकिन सजा उसे और उस बच्चे को मिली।

बात आगे बढ़ती हैं। तमाम बातें घटती हैं। जो आचार्यजी थे उनके बेटे को उस लड़की से प्रेम हो जाता हैं। सारी बातें सामने आ जाती हैं। उसके जीवन की सारी कहानी लड़के को मालूम चलती हैं। तब कहीं जाकर वह लड़की रूपसाहाय नामक व्यक्ति जिसने की उसकी आबरू से खिलवाड़ किया था, उसके यह शब्द कि यदि कोई मर्द किसी का बलात्कार करता हैं, तो उसे यह सोच लेना चाहिए कि वह आत्महत्या कर रहा हैं।
कहने का सारांश यह है कि यदि वाकई में कोई मर्द किसी महिला के साथ जर्बदस्ती करता हैं, तो उसे सरे आम गोली मार देना चाहिए। तभी हम इस तरह की घटनाओं पर लगाम कस सकते हैं। समझ नहीं आता है कि हमारा कानून इतना पेचीदा और मुश्किल भरा क्यों हैं। न्याय पाने के लिए पता नहीं कितने साल लग जाते हैं।

मेरा तो मत है कि इस तरह की घटनाएँ यदि किसी मासूम के साथ होती हैं, तो उस आदमी को बीच चौराहे पर फाँसी की सजा मुकरर की जाना चाहिए। साथ ही दोस्तों हमें हमारे आसपास स्थित इस रह रही मासूमों का ध्यान रखना चाहिए। यदि यह जन सहयोग रहा तो हम इन घटनाओं पर अंकुश लगा सकते हैं।

- राजेन्द्र कुशवाह

Friday, July 2, 2010

गलती मुझसे हुई


हाँ मैं मानता हूँ कि
गलती मुझसे हुई
पर तुम भी भागीदार
थी, मेरी गलती मैं

तुम जब जानती हो कि मैं हूँ
उस जहान का
जहाँ से मुझे मतलब नहीं,
फिर भी मैं
जुडा रहा तुम्हारे जहान से

जानने की कोशिश भी नहीं की...
चाहता तो, तो तुम्हारा सारा जहान
मेरा अपना था, मैं सब कुछ जान सकता था
पर, तुम्हारी अपनी इच्छा नहीं थी
फिर कैसे गुस्ताखी कर सकता था...

कुछ लोग मेरे अपने थे
कुछ अजनबी थे....
फिर मैं तुम्हारी और मेरी
बात को कैसे जग
जाहिर करता....

पर अब तुम मुझे जानती हो
चेहरे से पहचानती हो
फिर भी क्यों मेरी अनजानी-सी
गलती को स्वीकार
नहीं करती हो...

मैं बात नही करूंगा... तुमसे
बात करोगी तुम, मुझसे
तब ही, हम मिलेगे, तुमसे

'राज '