Saturday, November 7, 2009

मुद्दते हो गई है तेरे मेरे अफसाने को

प्रिये जानम

समय किस तरह रेत की

तरह निकल गया....
तेरी-मेरी चाहतों का
का सूरज
भोर से
शाम की ओर
निकल गया....

फिर वही काली अंधियारी रात
फिर बैचेनी और तन्हा रात

तुम्हारे आने की कल्पनाओं की
सेज आज फिर
सजने लगी है...
तुम आओ या न आओ...
तुम्हें हमारी चाहत
बुलाने लगी है...

सिर्फ़ तुम्हारा
राज

1 comment:

MANVINDER BHIMBER said...

तुम्हारे आने की कल्पनाओं की
सेज आज फिर
सजने लगी है...
तुम आओ या न आओ...
तुम्हें हमारी चाहत
बुलाने लगी है...
bahut sunder bhaaw hai.....laajwaab