Sunday, December 26, 2010

राकेश वर्माजी : शून्य से शिखर तक


8 दिसम्बर 2010 की शाम 6.05 की सर्द शाम को मैं अपने दिए हुए नियमित काम को खत्म करने के प्रयास में लगा हुआ था, मारुति की खड़खड़ और ट्रैफिक के कारण मुझे मेरे फोन की घंटी कुछ धीम सुनाई दी, जिसे मैंने तुरंत ही उठाया और हलौ बोला... मुझे सिर्फ इतना ही सुनाई आया कि जहाँ भी हो तुरंत घर यानी कि मेरे बोस श्री राकेश वर्मा जी के यहाँ आ जाऊँ। यह सुनते ही मैंने ड्रायवर को बोला कि तुरंत ही घर की तरफ चलो, साथ ही मन में कई तरह की आशांकाओं ने घेर लिया था, तरह-तरह के ख्यालात मेरे मन में आ रहे थे, सोच-सोचकर दिमाग ने काम करना बंद कर ‍िदया था, तभी कुछ देर बात फोन की घंटी फिर बजी... मैं अंशु वर्मा बोल रहा हूँ... अब हमें किसी भी चीज की जरूरत नहीं हैं, तुम घर आ जाओ... यह सुनते ही मेरे शरीर में उस सर्द शाम को गर्मी की लहर आ गई और पूरा शरीर मानो जड़ सा हो गया हो और पसीने से सराबोर हो गया था। जब तक मैं बोस के घर नहीं पहुँचा तब तक होश ही नहीं था कि मैं कहाँ पर था। घर जाकर देखा तो हालत ही खराब थी, मेरा सबकुछ जा चुका था। मेरी मेहनत, मेरा करना, सबकुछ व्यर्थ हो चुका था। मेरे बोस श्री राकेश वर्माजी का निधन हो चुका था। मेरे जीवन में फिर वही 8 दिसम्बर की शाम जो कि सालों पहले घटी थी, वो ही घटना फिर हो गई। मेरे जीवन का अहम और अजीज व्यक्ति फिर आज इस दुनिया से जा चुका था। मेरा मन पूरी तरह से विचलित था। समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करूँ, किससे अपनी बात को शेयर करूँ... किस के कांधे पर सिर रखूँ... कोई भी तो नहीं था मेरे पास। सामने जो थे वो सब सिर्फ 8-10 दिन के ही तो जान पहचान के थे...। पर मेरा अपना तो कोई नहीं था, जिसके सामने मैं अपनी बात रख सकूँ।

शिकायत सिर्फ अपने दिल से थी... कि क्यों इतना लगाव रखा... क्यों इतनी जगह दिल में दी। पर मैं भी करता क्या... उस व्यक्ति में इतना आकर्षण... इतना जीनियसपन कि आज तक कोई ऐसा व्यक्ति मेरे जीवन में नहीं आया था। कितना अच्छा महसूस होता था, जब मैं उनके पास बैठकर उनकी बातों को सुनता था...। उनसे जीवन के अनुभव और कई तरह की बातें किया करता था, मुझे उनसे मिले हुए मात्र 5 माह ही हुए थे, उनकी पत्नी श्रीमती प्रेरणा वर्मा मेरी मैंनेजिग डायरेक्टर थी। मेरी नियुक्ति श्री राकेश वर्माजी ने ‍ही की थी। बहुत सारे लोग उनके पास थे, परन्तु मेरे गॉड फादर श्री किशोरजी ने उनके पास मुझे भेजा था, तो उन्होंने मुझे ही अपने ऑफिस के लिए रखा था और साथ ही ‍श्री ‍िकशोरजी ने ‍िहतायद दी थी, कि मैं मन लगाकर काम करूँ और उनसे यानी श्री राकेशजी को किसी भी तरह की ‍िशकायत का मौका नहीं दूँ। पर मुझे क्या मालूम था कि मेरी सेवा का यह फल मुझे ‍िमलेगा। मेरा श्री राकेशजी से इतना लगाव हो गया था कि मैं सोचता था कि प्रेरणा वर्मा कब घर से बाहर जाएगी और मैं राकेश वर्माजी के साथ बैठूँगा और उनकी आवाज सुनकर उनकी सेवा कर सकूँगा। मैं ये तो नहीं जानता कि वो मुझे कितना पसंद करते थे, परन्तु मैं उनको बहुत ही पसंद करता था, (था से ये मतलब नहीं कि मैं अब उन्हें पसंद नहीं करता... मैं आज भी उनको अपने आसपास ही महसूस करता हूँ)। वो मेरी कमजोरी और काम करने के तरीके में बहुत मदद करते थे, उनकी पत्नी को भी नहीं मालूम वो मुझे किस तरह से सारी बातें बताते थे, नहीं राजेन्द्र ऐसा करा करो... मेरे मार्गदर्शक... मेरे पथप्रदर्शक और मेरे अजीज श्री राकेश वर्माजी से मैंने अपने जीवन के सभी पहलूओं से अवगत कराया था और यकीन नहीं होगा आपको कि उन्हें बोलने में तकलीफ होती थी, परन्तु वह मुझसे ढेर सारी बातें किया करते थे। उनकी पत्नी मुझे बोलती थी ‍िक राजेन्द्र ये तुमसे बहुत बातें करते हैं, इतनी तो मुझसे भी नहीं करते।

सच कहूँ तो आज भी उन्हें मैं अपने आसपास ही महसूस करता हूँ। बचपन मैं ही पिता का साया उठने के बाद अपनी ही समझ से चलता रहा। जो अपनी समझ ने कहा वो ही करा। जब राकेश वर्माजी से मिला तो लगा कि नहीं जिंदगी में पहली बार कोई व्यक्ति ऐसा मिला है जिससे दुनिया के अनुभव लेकर मैं अपने जीवन को बेहतर तरीके से सँवार सकता हूँ। वर्ष 1997 से जब मैं इंदौर आया था, तब से लेकर अभी तक वक्त की आँधी ने मुझे यहाँ वहाँ पटका और सही मायने में जब जिंदगी की शुरुआत होने जा ही रही थी कि अचानक काल के क्रूर हाथों ने मुझसे अपना सबसे प्रिय पथप्रदर्शक छीन लिया। ऐसा लगा जग ने मुझे खुले आम लूट लिया। यकीन मानिए आज मुझसे कंगाल इस पूरी दुनिया में दूसरा कोई न होगा।

मैंने जब श्री वर्माजी की कम्पनी ज्वाइन की थी, तब जेहन में ये ख्याल बिलकुल भी नहीं आया था ‍िक राजेन्द्र तुम्हें यहाँ जिंदगी के अनुभव का ऐसा अनमोल खजाना मिलने जा रहा है, ‍िजसकी तलाश तुम बरसों से कर रहे थे। एक दुर्घटना की वजह से उनकी जिंदगी एक व्हीलचेयर तक सिमट गई थी। उन्होंने इसे भी आत्मसात किया और ईश्वर का प्रसाद मानकर कबूल किया और टेलीकॉन्फ्रेंसिंग के जरिए ही वे अमेरिका की सॉफ्‍टवेयर कम्पनी एजटेक का और इंदौर ऑफिस का संचालन कर रहे थे।

मैं उनके इस साहस को देखकर सोचा करता था ‍िक वर्माजी में ऐसे हालातों में भी काम करने का कितना जज्बा-जोश है, शारीरिक क्षमता न होने को उन्होंने बोझ नहीं माना और जिंदगी के आखिरी लम्हों तक काम ही करते रहे। यहाँ मुझे प्रख्यात लेखक शिवाजी सावंत की 'मृत्युंजय' पुस्तक के कुछ अंश याद आ रहे हैं... 'मनुष्‍य भावनाओं पर जीता है, लेकिन कभी-कभी उसको कर्तव्य के लिए भावना को पीछे धकेलना पड़ता है, औरों के लिए जो जीता है वही मनुष्य है।' 'जीवन मनुष्य की कठोर परीक्षा लेता है, प्रत्येक बात मनुष्य की इच्छानुसार हो जाएगी, ऐसा नहीं होता।' 'जीवन में अनेक घटनाएँ घटित होती है। मनुष्य चाहे ‍िजतना प्रयत्न करे, फिर भी वह उन सभी घटनाओं को याद नहीं रख सकता, लेकिन कुछ घटनाएँ ऐसी होती है कि भूलने का प्रयत्न करने पर भी वे भुलाई नहीं जाती। जल में रहने वाला मगर जैसे ही एक बार पकड़े हुए भक्ष्य को छोड़ने के लिए कभी तैयार नहीं होता, वैसे ही मन भी उन घटनाओं को छोड़ने के लिए कभी तैयार नहीं होता। मन की पेटिका में ऐसी घटनाओं के अनेक महीन रेशमी वस्त्र रखे रहते हैं, जिन्हें हमेशा सजोकर रखना रहता है।

श्री राकेश वर्माजी भले ही इस दुनिया में न हो, लेकिन उनकी कार्य के प्रति समर्पण भावना सैकड़ों युवाओं का पथ प्रदर्शित करती रहेगी। सीधे जमीन से उठा यह इंसान अपनी लगन और मेहनत के बूते पर बुलंदियों के आसमान पर जा बैठा था। उनके पास विरासत में ऐसा कुछ नहीं ‍िमला था, जिसके बूते पर वह अपने आप को बुलंदियों तक ले जा सके। गुरबत के ‍िदनों में उन्होंने लोगों के कपड़े सिल और रात में किताबों की बाइडिंग करके अतिरिक्त आय कमाई ताकि किशोरावस्था में पढ़ाई पूरी हो सके। आज मिलियन डॉलरवर्थ वाली अमेरिकी सॉफ्टवेयर कम्पनी के सीईओ और संस्थापक राकेश वर्माजी से जरा भी परिचित हैं, उन्हें ये पढ़कर आश्चर्य होगा कि उनकी शिक्षा बहुत ही साधारण स्कूल में हुई और बाद में उन्होंने इंदौर के ख्‍यात संस्थान जीएसआईटीएस से इलेक्ट्रॉनिक विषय में बीई किया।

इंदौर से वे आईआईटी मुंबई पहुँचे और इलेक्ट्रॉनिक के बजाय कम्प्यूटर साइंस में एमटेक किया। वे इस बात को जान चुके थे (1979) कि भविष्य में कम्प्यूटर का ही जमाना आने वाला है। राकेशजी का सफर बेहद रोमांचकारी है। उन्होंने स्टील ट्‍यूब ऑफ ‍इंडिया से जुड़कर बिजनेस और फाइनेंस के गुर सीखे बाद में उन्होंने टाटा इंस्टीट्‍यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च ज्वाइन किया। यहीं पर उन्होंने गाँव के टेलीफोन एक्सचेंज के लिए सॉफ्टवेयर लिखा। राकेशजी बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। वे इंजीनियर, वैज्ञानिक और लेखक थे।

70 के दशक में पूरे हिन्दुस्तान के साहित्य दिल पर 'धर्मयुग' नामक पत्रिका का राज था और डॉ. धर्मवीर भारती की अगुआई में टाइम्स ऑफ इंडिया की यह अव्वल पत्रिका धूम मचा रही थी, उसी दौर में श्री राकेशजी के लेख 'धर्मयुग' में प्रकाशित होते थे।

बाद में उन्होंने सॉफ्टवेयर कम्पनी 'एजटेक' की स्थापना की। हादसे के बाद व्हीलचेयर और पत्नी श्रीमती प्रेरणा वर्मा ही उनका सहारा थी, लेकिन इस अवस्था में भी उनकी सोच का दायरा असीमित था। उनकी दिली तमन्ना थी ‍िक वे अपनी 'आत्मकथा' लिखे (बोलकर ‍िलखने), इसके लिए नए क्रांतिकारी सॉफ्टवेयर लिखने (बोलकर लिखने) की योजना भी बना रहे थे, लेकिन उनके निधन के साथ ही यह योजना भी काल के गर्भ में समाँ गई।

हिन्दू रीति से जब विवाह होता है तो सात फेरों के संग जिंदगी भर सुख-दु:ख में साथ निभाने का वादा लिया जाता है, श्री वर्माजी का विवाह श्रीमती प्रेरणाजी से हुआ और उनके समर्पण और पति के प्रति प्रेम अगर किसी ने देखा है, तो वह मैं हूँ, इतना समर्पण आज तक मैंने किसी भी पत्नी में नहीं देखा (मेरी पत्नी मैं भी नहीं)। ऑफिस के काम भी हम दोपहर 2 बजे के बाद ही करते थे, कारण वह अपने पति श्री वर्माजी की सेवा तल्लीन रहती थीं।

संजय लीला भंसालीजी की फिल्म गुजारिश में बहुत कमियाँ है, इसलिए तो बॉक्स ऑफिस पर फैल हो गई, उन्हें अगर ‍गुजारिश फिल्म बनानी थी तो वह इंदौर आकर प्रेरणा वर्मा और राकेशजी के प्रेम और समर्पण भाव को देखते तो... मेरा यकीन है, यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर पहले दिन की तीन गुना मुनाफा कमाती। इन्होंने तो आज यह फिल्म बनाई है, जबकि हमारे वर्माजी लगभग 7 साल पहले किसी दुर्घटना में बर्फ पर फिसल गए थे, जिसके कारण उनके शरीर ने काम करना बंद कर दिया था। उस समय से प्रेरणा वर्माजी उनके साथ वह कर रही थी, जो फिल्म में दिखाया ही नहीं गया। उनकी हर जरूरत उनसे शुरु होती थी और अंत भी उनकी बात के साथ ही होता था।

मेरा सोचना है कि प्रेरणा जी उन्होंने विगत दिसम्बर 2009 में भारत इसलिए लाई थी कि उनका स्वास्थ्‍य मालवा की मिट्‍टी की सौंधी-सौंधी खुशबू उनके शरीर को उर्जा से भर देगी, उनके प्रयत्न और प्रयास को मैंने देखा, श्रीमती प्रेरणा वर्मा है बहुत ही शालीन और अगर कहाँ जाए तो हिन्दुस्तानी पत्नी, जो 20 सालों से अमेरिका में रहती है, परन्तु इंदौर यानी मालवा की माटी और सौंधी सुगंधी की महक आज भी उनके दिल में बसी हुई है। प्रेरणा वर्मा जी ने जितनी मेहनत और लगन से राकेशजी और कम्पनी को सँभाला हैं, वह वाकई तारीफ के काबिल हैं। राकेशजी की किसी भी विषय वस्तु में कमी नहीं की गई, परन्तु ईश्वर की मर्जी के सामने हम सभी विवश होते हैं। प्रयास हमारे होते हैं, पर ‍िनर्णय तो ईश्वर ही लेता है। 8 दिसम्बर 2010 को श्री राकेशजी हम सभी का साथ छोड़कर ईश्वर के घर की और रुख कर गए।

श्री राकेशजी नाम का यह बहुआयामी व्यक्तित्व आज भले ही हमारे बीच नहीं है, लेकिन जहाँ तक उनके कर्म की यात्रा है, वह युग-युगांतर जारी रहेगी। हमारे साथ, हमारी स्मृतियों के साथ। उनके चले जाने के बाद भी कई बार महसूस होता है, वे कहीं नहीं गए, एक अदृश्य शक्ति पता नहीं क्यों आव्हान करती है, वे हमारे पास ही है, यहीं आसपास....।

-राजेन्द्र कुशवाह

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