Sunday, March 22, 2009

मुझे फाँसी की सजा सुना दो...

प्रिय जानम,

किताबों की उलझनों से सुलझकर
तुम पहुँच गई.... अपनी मंजिल पर
सुनने में आया कि जज बन गई हो
अखबार में भी पढ़ने पर आया कि
तुम्हारी पोस्टिंग मेरे ही शहर में हो गई है।

एक अर्सा बीत गया
तुम्हें देखे हुए
आँखें पथराई सी हो गई
तुम्हें देखें बिन


लगता है कि
एक संगीन अपराध कर डालूँ...
इस बहाने कम-से-कम
तुम्हारे सामने तो आ जाऊँगा...

तुम न्याय की मूर्ति
मुझे फाँसी की सजा सुना देना...
रोज रोज मरता हूँ तुम्हारी याद में...
फाँसी की सजा पा कर
एक दिन में ही मर जाऊँगा..

तुम्हारी यादों के बोझ और
तन्हाइयों के पलों से
मुक्ति तो पा जाऊँगा ...

एक प्रेमिका के हाथों
जिंदगी ना मिली...
तो क्या हुआ मौत की सजा पाकर
अपने आपको धन्य मान जाऊँगा।

- तुम्हारा 'राज'

1 comment:

Anonymous said...

kaya baat hai bhai. bahut khub likha hai... ek premika ke haatho marna sab ki kismat mai nahi hota hai.... eswar kare aap ki tamanna puri ho...