Wednesday, December 2, 2009

चोर या छलिया....हूँ तो तुम्हारा...

मेरी प्रियतमा,

समझ नहीं आता कि किस नाम से तुमको सम्बोधित करूँ मैं...
मेरे प्यारे हमराज, हम कदम, हमदम, या फिर वेबफा सनम...

पर फिर भी जैसी भी हो, हो तो मेरी...
जिसे चुराया था, लोगों की नजरों से और छुपाया था अपने शानों में...

जहाँ तक तुम्हारा ख्याल है मेरे प्रति,

मैंने चुराया है, रात के अँधेरे में तुमको...
क्या बुरा किया है, कि तुमको तुम्हीं से चुराया है
मैंने अपने लिए...
अपने निर्जीव शरीर के लिए...
क्योंकि तुम मेरे बेजान शरीर की साँसें हो...
चाहत थी मेरी...

डर था मन में कहीं ऐसा न हो कि तुम हो जाओ
किसी ओर की...

जाहिर है.. कहीं न कहीं मेरे पालग मन का शैतानहावी था मुझ पर
कि चुरा लूँ तुमको तुम्हारे जहान से
ले आऊँ तुम्हें अपने जहान में...

जिंदगी लगा दाँव पर...
पाया है मैंने तुम्हें...
फिर चाहे तुम मुझे चोर कहो या फिर छलिया

चाहा है... तुम्हें
खुद से ज्यादा...एक चोर और छलिया बनकर...

सिर्फ तुम्हारा 'राज'

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