Saturday, July 3, 2010

सजा तो वाकई में यही निश्चित हो....


अभी हाल ही में एक ब्लॉग जिसका url http:\\objectionmelord.blogspot.com पढ़ने में आया। उसमें निर्मलाजी ने ‍बहुत ही अच्छी बात लिखी की बच्चों की दीक्षा क्यों? आप लोग भी उसे पढ़े और अपनी राय व्यक्त करें। उसे पड़ने के बाद लगा ‍कि वाकई में लेखिकाजी ने सच्चाई व्यक्त की हैं।

साथ ही एक बात से और रूबरू कराना चाहूँगा कि मैं इंदौर में रहता हूँ, हालाँकि इंदौर का रहवासी नहीं था, लेकिन अब 12 सालों से इंदौर में हूँ तो यही का रहवासी हो गया हूँ। विगत लगभग 3-4 दिन पहले की घटना ने समूचे इंदौर को हिला दिया। घटना शायद आप लोगों ने अखबारों के माध्यम से पढ़ी भी होगी। यदि नहीं तो मैं आपको बताना चाहूँगा... ये ऐसी पहली घटना नहीं हैं। ऐसी बहुत सी घटनाएँ हो चुकी हैं। और वो भी इंदौर में ही, अन्यत्र जगह की तो बात ही नहीं कर रहा हूँ।

घटना कुछ इस प्रकार थी कि एक लड़का किराए के मकान में रहता था, उसने उसे मकान मालिक की सात वर्षीय बालिका के साथ दुष्कृत्य कर उसका गला घोंट दिया था। परिजन परेशान थे, लगभग दो दिन के बाद उनकी लड़की बोरे में बंद उनके घर के सामने सुबह मिली, जिसे देखकर सारे घर के सारे लोग हतप्रभ रह गए। फिर वही होता है, पंचनामा बनना और पुलिस तफतीश, पोस्टमार्टम। संदेह के तौर पर लड़के से पूछताछ की और उसने अपना जुर्भ कबूल लिया। साथ ही उसके माता-पिता को भी पुलिस ने साक्ष्य छुपाने के जुर्म में अंदर कर दिया।

बात यही खत्म नहीं हो जाती हैं कि उस लड़की के साथ इस तरह की घटना हुई हैं। सोचनीय बात तो यह है कि क्या हम इस तरह की घटना को आपसी सहयोग से किस तरह से हल कर सकते हैं। आज ऐसे बहुत से माँ-बाप हैं, जो रोजी-रोटी कमाने हेतु दिन में ऑफिस या अन्य जगह कार्य करने जाते हैं, ऐसे में यदि घर में बेटी हो, तो उनकी चिंता बहुत ही बढ़ जाना स्वाभाविक होता है। क्या आज का व्यक्ति इतना वहशी हो गया है कि वो मासूमों के चेहरे की तरफ ही नहीं देखता और वो कृत्य कर जाता हैं, जिसकी सारी दुनिया में थू-थू होती हैं। सच कहूँ तो मेरा तो दिल ही कँप जाता हैं, ऐसी घटनाओं को सुनने के बाद। जब मेरा यह हाल हैं, तो उन माँ-बाप के दिल पर क्या गुजरी होगी, जो इस तरह के घटनाक्रम से रूबरू हुए होंगे।

इसी तरह की उथल-पुथल मेरे मन में चल रही थी, फिर सोचा कि आप लोगों से इस बात को शेयर करके कुछ मार्गदर्शन प्राप्त कर लूँ, साथ ही आप लोगों को भी सचेत करूँ कि इन घटनाओं की पुनर्वृत्ति न हो।

यह सच है कि हमारे देश में बहुत सालों पहले जातिवाद, छुआछूत, धार्मिक विवाद एवं कष्टप्रद परंपराएँ चलती थी, जो कि आज के समय में बहुत कम दिखाई देती हैं, फिर भी इस तरह की घटनाओं से मन व्यथित जरूर होता हैं।

मैंने हाल ही में एक फिल्म देखी, फिल्म का नाम था, प्रेमग्रंथ। किसी ने सच ही कहा है कि सिनेमा हमारे समाज का दर्पण हैं, जो घटित होता है, वही परदे पर दिखाया जाता हैं। फिल्म का सारांश संक्षेप में बताता हूँ कि पहले के जमाने में छुआछूत, ऊँच-नीच बहुत माना करते थे। गाँव के महंत या आचार्य कहें, उन्हें सोने में तुलना और परंपराओं का निर्वाह करना आदि बहुत महत्वपूर्ण था। उनके चम्मचों से वह दिन-रात घिरे रहते थे, चम्मचे उन्हें कई बार गुमराह भी किया करते थे। उन्हीं का बेटा जो कि इस तरह की बातों में विश्वास नहीं रखता था। गाँव में मेला लगा हुआ रहता हैं, और उस मेले में नीची जाति के लोगों के लिए भगवान के दर्शन करने हेतु अलग से लाइन लगी होती हैं, इन्हीं सब बातों से क्षुब्द होकर वह भगवान की मूर्ति को लेकर पुराने में मंदिर में रखने जाता हैं, इसी समय एक गरीब लड़की उनके सामने गिर जाती हैं, लेकिन वह उसे उठाकर भगवान श्रीराम की मूर्ति उसे देकर मंदिर में प्रतिस्थापित करने को कहते हैं।

यही से उनके प्रेम की शुरुआत होती हैं, लेकिन मेला खत्म होते ही वह लोग चले जाते हैं। इसी समय जब यह वापिस हो रहे होते हैं, तो कुछ लोग उस लड़की को उठाकर ले जाते हैं और बलात्कार करके छोड़ देते हैं। यह बात उसके पिता को चलती हैं, तो उसे लेकर घर आते हैं। लेकिन घर पर भी क्या वही लोकलाज का डर। गर्भपात कराना आदि इन सब बातों का सामना होता हैं। वह घर से निकाल दी जाती हैं, और दर-दर की ठोकर खाकर बच्चे को जन्म देती हैं, लेकिन बच्चा भी मर जाता हैं, पर उसे दफनाने के लिए भी जगह नहीं मिलती हैं। धर्म की ध्वजा संभाले हुए गाँव के आचार्य भी उसे शमशान में बच्चे का दहा संस्कार करने से मना कर देते हैं। बहुत ही मार्मिक दृश्‍य था यह। पर इसमें उसका या उस बच्चे का क्या दोष था। उसने तो हर बात को अपने अनुकूल मान लिया था। बलात्कार किसी ने ‍िकया था, लेकिन सजा उसे और उस बच्चे को मिली।

बात आगे बढ़ती हैं। तमाम बातें घटती हैं। जो आचार्यजी थे उनके बेटे को उस लड़की से प्रेम हो जाता हैं। सारी बातें सामने आ जाती हैं। उसके जीवन की सारी कहानी लड़के को मालूम चलती हैं। तब कहीं जाकर वह लड़की रूपसाहाय नामक व्यक्ति जिसने की उसकी आबरू से खिलवाड़ किया था, उसके यह शब्द कि यदि कोई मर्द किसी का बलात्कार करता हैं, तो उसे यह सोच लेना चाहिए कि वह आत्महत्या कर रहा हैं।
कहने का सारांश यह है कि यदि वाकई में कोई मर्द किसी महिला के साथ जर्बदस्ती करता हैं, तो उसे सरे आम गोली मार देना चाहिए। तभी हम इस तरह की घटनाओं पर लगाम कस सकते हैं। समझ नहीं आता है कि हमारा कानून इतना पेचीदा और मुश्किल भरा क्यों हैं। न्याय पाने के लिए पता नहीं कितने साल लग जाते हैं।

मेरा तो मत है कि इस तरह की घटनाएँ यदि किसी मासूम के साथ होती हैं, तो उस आदमी को बीच चौराहे पर फाँसी की सजा मुकरर की जाना चाहिए। साथ ही दोस्तों हमें हमारे आसपास स्थित इस रह रही मासूमों का ध्यान रखना चाहिए। यदि यह जन सहयोग रहा तो हम इन घटनाओं पर अंकुश लगा सकते हैं।

- राजेन्द्र कुशवाह

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