Wednesday, December 17, 2008

मेरा गुनाह


- राजेन्द्र कुशवाह

मैं अत्यन्त ही अनमने मन से कदम बढ़ाता हुआ घर जाने के लिए उसके ऑफिस से निकला। चलते वक्त मैं उससे नजरें नहीं मिला सका, औपचारिकतावश मैंने सिर्फ उसका अभिवादन किया था। मैं घर कब पहुँचा और क्या-क्या रास्ते भर सोचता रहा मुझे कुछ याद नहीं।


आज मेरी श्रद्धा, पूजा और प्रीति जैसे बिखर कर टुकड़े-टुकड़े हो गई हो और प्रत्येक टुकड़ा मुझसे जवाब माँग रहा हो कि इसका सारा श्रेय तुम्हें जाता है, सिर्फ तुम्हें। मेरे अंतर्मन में एक टीस उठती है, एक दर्द उठता है, ऐसा अव्यक्त दर्द, जिसकी कोई परिभाषा नहीं कोई सीमा नहीं। आज मुझे एहसास हुआ कि मुझे कोई हक नहीं था, इस तरह अपनी पूजा, श्रद्धा, प्यार और प्रीति को पलने-बढ़ने देने का जिसका कि मैं स्वयं हत्यारा हो जाऊँगा। मैं जन्म से या आदतन अपराधी नहीं हूँ, फिर भी कुछ अपराध ऐसे हो ही जाते हैं, जिसकी सजा व्यक्ति को गीली लकड़ी की तरह जलाती है और उसके हिस्से में राख भी नहीं आती है।


मैंने प्यार और प्रीति का गुनाहगार हूँ और न्याय की उम्मीद भी इन्हीं से ? कैसी विडम्बना थी यह। शायद फैसला मुझे पहले से ही मालूम होना चाहिए था, फिर भी आशा और विश्वास का एक दिया मेरे हृदय में टिमटिमाता रहा। संक्षिप्त, बल्कि एक शब्द के फैसले से एक बिखर गई (प्रीति) और दूसरी (विश्वास) टूट गया। बिखरे हुए को तो समेटा जा सकता है, किन्तु टूटे हुए को जोड़ा नहीं जा सकता और जुड़ा भी तो गाँठ अवश्य पड़ जाएगी अर्थात वह सम्पूर्ण कहलाने का हकदार नहीं है।


अब मैं क्या कर सकता था, अपने दिल के सामने, सिवाए उसे झूठी आशा और ढिंढासा बाँधने के। मेरी सालों की प्रीत और विश्वास का यह सिला मिलेगा, मैं सोच भी नहीं सकता था, शायद मेरी ही आराधना में कुछ कमी रह गई होगी, जिसके कारण मुझे उसका फैसला मेरे दिल के प्रति सकारात्मक नहीं मिला और उसने सिर्फ एक शब्द में 'ना' रूपी इनकार मेरे दामन में डाल दिया... और मैं अपने भारी मन से घर की ओर चला आया।

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