Friday, December 19, 2008

प्यार को बाँधिए विश्वास की मजबूत डोर से

- राजेंद्रसिंह कुशवाह


यह बात आई-गई हो गई कि बिन एक-दूसरे को देख वो जन्मों के सात बँधनों में बंध जाते थे। न वो एक-दूसरे की सोच और समझ से परिचित होते थे, न ही किसी तरह की कोई बात होती थी, बस उन्हें सिर्फ यह पता रहता था कि भारतीय परम्परा के अनुसार सात जन्मों के बंधनों में बंधना है। जहां घर के बुजुर्ग व्यक्तियों द्वारा रिश्तों को नए आयाम और दिशा दी जाती थी, उन रिश्तों में कभी भी खटास या पारिवारिक मतभेद नहीं होते थे। परन्तु आज इन सारी चीजों को बहुधा स्थिति में अभाव दिखाई देता है। आज चेहरा तो दूर की बात है कुछ दिनों तक एक-दूसरे के साथ मिलना, उठना, बैठना और एक-दूसरे की समझ को समझना फिर अंत में अपने रिश्तों को बाँधने की परम्परा को अंजाम दिया जाता है।

इसके बावजूद भी क्यों टूटते हैं रिश्तें? क्यों हो जाते हैं मन एक-दूसरे के विपरीत? जबकि उन्होंने तो शादी के पहले एक-दूसरे को पूर्ण रूप से समझ लिया था। फिर क्या बात थीं.... दोनों एक-दूसरे के विपरीत हो गए...

नेहा और रीतेश दोनों ही मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते हैं। दोनों की शादी को हुए दो साल हो चुके हैं। शादी के पहले भी लगभग दो साल तक इनके परिवार वाले और नेहा व रीतेश आपसे में मिलते रहते थे, तब कहीं जाकर इन्होंने शादी की। दोनों के परिवार वाले आज इस बात से परेशान हैं कि ऐसी कौन-सी बात हो गई है कि आज शादी के दो साल बाद ये दोनों एक-दूसरे के विपरीत हो गए हैं। एक वो दिन था जब दोनों घंटों अपने कमरे में बैठकर बातें करते रहते थे और एक-दूसरे के बिना नहीं रहते थे।

यह सर्वविदित है कि पति और पत्नी के रिश्तों के बीच एक विश्वास की डोर होती है, जहाँ वह एक-दूसरे को बंधनों में बाँधने के लिए होती है। यदि इसी विश्वास रूप डोर यदि टूट जाए तो उस परिवार और रिश्तों को बिखरने से दुनिया की कोई भी ताकत नहीं रोक सकती है, जिसका अंजाम दोनों परिवारों के लिए दुःखदायी हो जाता है।

बात उन दिनों की है, जब रीतेश, नेहा से शादी कर अपने घर-परिवार में ले आया था। तब जाहिर है कि नेहा को रीतेश से पहले से कहीं ज्यादा अपेक्षाएँ हो जाना स्वाभाविक है। यह बात रीतेश भी समझता था, परन्तु रीतेश के पास आज नेहा के अलावा माँ, पिता व बहन की भी जिम्मेदारियाँ थी। रीतेश की बहन मोनिका जो कि स्वभाव से चंचल एवं पूरे घर की चहेती थी, सारे घर में मोनिका को लेकर हमेशा उत्साहित रहते थे, वह उसकी छोटी-बड़ी जरूरतों को पूरा करने के लिए हर सम्भव कोशिश की जाती थी।

मोनिका को एमबीए में प्रवेश लेने के लिए जहाँ रीतेश ने अपनी कम्पनी से लोन लेकर उसे प्रवेश दिलाया, वह खुश था कि उसकी बहन को एमबीए में प्रवेश मिल गया। वही नेहा को यह बात पूरी तरह खलती थी कि घर के सारे परिवार के लोग मोनिका को लेकर उत्साहित रहते हैं। जबकि नेहा को लेकर परिवार के लोगों और रीतेश का रवैया काफी सकारात्मक रहता था। घर में हर काम को नेहा से पूछकर ही अंजाम दिया जाता था। चाहे वह बात कितनी ही छोटी क्यों न हो, नेहा से आवश्यक रूप से उस कार्य में सलाह ली जाती थी।

दोनों की जिंदगी में मोड़ उस समय आया जब नेहा ने एक टेलीकॉम कम्पनी में सेल्स एज्यूक्टिव की जॉब की। नेहा ने बी.कॉम के साथ कम्प्यूटर में भी डिप्लोमा ले रखा था। रीतेश के पिता की मृत्यु के बाद नेहा दिनभर घर पर अकेली रहती थी और मोनिका अपनी पढ़ाई के लिए होस्टल में रहती थी। इसके चलते नेहा दिनभर खाली रहती थी, रीतेश अपने बैंक के कार्य में हमेशा डूबा रहता था। इसके चलते नेहा की जिंदगी में एक स्थिरता आ गई थी। रोज का वही रूटिन कार्य कर दिन-भर अकेलापन उसके काफी खलता रहता था।

नेहा का नया-नया जॉब और उसके साथ ही बॉस द्वारा नेहा को दी जाने नित्य नई जिम्मेदारियाँ और जिन्हें अपनी पूरी जिम्मेदारी के साथ नेहा ने निभाया। नेहा और बॉस की उम्र में ज्यादा अन्तर नहीं था, नेहा के काम से सचिन (बॉस) काफी प्रभावित थे, यही नहीं सचिन द्वारा अपने प्रोजेक्ट्स में भी नेहा की सोच को शामिल कर कार्य को अंजाम देता था। वही दूसरी ओर रीतेश का अन्य जगह ट्राँसफर हो गया। रीतेश हर शनिवार और रविवार को घर आता था।

जबकि इधर रीतेश में बढ़ते काम के बोझ और दूसरा अन्यत्र जगह ट्रांसफर हो जाने के कारण चिड़चिड़ापन-सा आ गया था, जिसका सामना नेहा को करना पड़ता था, कभी-कभी तो दोनों में अनबन भी हो जाती थी, परन्तु रीतेश अपनी समझ के अनुरूप नेहा को मना लेता था, परन्तु इधर रीतेश से हुई दूरियों ने नेहा को सचिन के प्रति ज्यादा आकर्षित कर दिया था, जिसका एहसास रीतेश को नहीं था, परन्तु वह कुछ दिनों से नोट कर रहा था कि नेहा पहले की तरह उसका ध्यान नहीं रख रही है, पूछने पर नेहा अपने काम के प्रति ज्यादा व्यस्तता को बताती, इसके चलते नेहा का झुकाव कब सचिन की ओर हो गया उसे खुद भी इस बात का एहसास ही नहीं हुआ।

इधर, सचिन ने भी नेहा को अपने प्रोजेक्ट्स में शामिल कर लिया। अब दिन-भर दोनों साथ रहते थे। साथ घूमना, साथ खाना-खाना, शापिंग करना इनका शगल बन गया था। यही नहीं रविवार को भी वह दोनों लगभग दो-तीन घंटे साथ-साथ बिताते थे, जिसके चलते रीतेश को यह कतई पसंद नहीं था, उसकी शिकायत रहती थी कि मैं तुम्हारे लिए शनिवार और रविवार के दिन घर आता हूँ और तुम ऑफिस में चली जाती हो। इस तरह की बातें नित्य प्रतिदिन दोनों की दिनचर्या में शामिल हो गई, चूँकि नेहा अब पूरी तरह से सचिन की ओर आकर्षित हो गई थी, इसलिए वह रीतेश की ओर से किनारा करने लगी।

हालाँकि रीतेश, नेहा से बहुत प्यार करता था, उसकी हर बात का ख्याल रखता था, परन्तु फिर भी नेहा सचिन की ओर....

यह बात कुछ समझ से परे थी, पर चंचल मन को कौन बाँध सकता है और एक दिन वही हुआ जिसका डर हमेशा नेहा को सताता था, रीतेश शनिवार को आवश्यक कार्य होने के कारण उस दिन अपने घर नहीं आया उसने नेहा को फोन करके बता दिया था कि मैं इस बार शनिवार और रविवार को घर नहीं आ रहा हूँ, बैंक में ऑडिटिंग का काम चल रहा है।

इसी बात का फायदा नेहा ने उठाया और रविवार को सचिन को अपने घर पर खाने के लिए बुला लिया। इधर रीतेश ने शनिवार का दिन और रात लगातार काम किया और अपने काम को विराम देकर, रविवार को सुबह ही ऑफिस से घर के लिए रवाना हो गया। सोच रहा था कि आज नेहा वाकई में बहुत खुश होगी उसे देखकर। इस तरह के विचार लिए वह बस में बैठ गया, बस की सीट पर बैठते ही उसे नींद ने अपने आगोश में ले लिया और उसे पता ही नहीं चला कि कब वह अपने गृह नगर पहुँच गया।

बस से उतरते समय लगभग दिन के १२.३० का समय हो रहा था। घर पहुँचते ही जैसे ही उसने अपने घर के बाहर खड़ी कार को देखा, तो एक बार तो सकते में आ गया कि मेरे घर और कार...! कौन हो सकता है? और भी पता नहीं कितनी ही प्रकार की कुशंकाओं ने उसे घेर लिया। जैसे ही उसने कॉलबेज बजाई... लगातार दूसरी बार बजाने पर नेहा ने दरवाजा खोला...। नेहा ने जैसे ही रीतेश को दरवाजे पर पाया तो एकदम सहम-सी गई और हकलाते हुए कहने लगी कि आप... आपने तो कहा था कि आप आज आ नहीं रहे हो... फिर...।

रीतेश नेहा के इस रवैये से कुछ विचलित-सा हो गया, फिर रीतेश ने नेहा से कहा कि अब घर में आ जाऊँ या फिर चला जाऊँ। इस बात से नेहा थोड़ी सकपका गई। जैसे ही रीतेश अंदर गया... वहाँ डायनिंग टेबल पर सचिन को देखा, इतने में ही नेहा ने एक-दूसरे से परिचित करवाया।

यही बात रीतेश के दिल में घर कर गई और नेहा के बदले हुए रवैये का कारण उसे समझ में आ गया। बात सिर्फ यही खत्म नहीं हो जाती है। धीरे-धीरे रीतेश ने नेहा पर नजर रखना शुरू कर दिया। पहले वह शनिवार और रविवार को आता था, लेकिन आजकल वह सप्ताह के बीच में भी कभी-कभी आ जाता था। एक-दो बार और उसने सचिन और नेहा को बाजार में घूमते-फिरते देखा। रीतेश को बात अब पूरी तरह समझ में आ गई थी, जिसके चलते दोनों में अब पहले जैसा प्यार नहीं रहा और बात तलाक तक आ गई।

चूँकि नेहा सचिन के प्रति पूर्णतः समर्पित हो गई थी और वह अब हर हाल में रीतेश को छोड़ना चाहती थी, रीतेश ने नेहा को अच्छा और बुरा दोनों ही बातें समझाई परन्तु नेहा अपनी बात पर अडिंग रही।

इधर रीतेश ने भी रोज-रोज के झगड़ों से परेशान होकर नेहा को तलाक दे दिया। उधर, नेहा के घर वाले भी काफी चिंतित थे कि अब क्या होगा? पर नेहा को इन सारी बातों से कोई सरोकार नहीं था, वह हर हाल में सचिन को पाना चाहती थी।

दूसरी ओर सचिन ने टेलीकॉम कम्पनी छोड़ नई कम्पनी ज्वाइन कर ली, जिसमें उसे अच्छा पैकेज और अन्य कई सुविधाएँ मिली। इसके साथ ही उसे यह शहर भी छोड़ना पड़ा। नेहा ने जब सचिन को अपनी सारी बातें बताई और अपनी इच्छा सचिन के सामने रखी कि वह रीतेश को छोड़ चुकी है और वह उसके साथ शादी करना चाहती है, तो सचिन ने नेहा से कहा कि वह उससे प्यार नहीं करता है, वह तो आज के मॉर्डन जमाने के हिसाब से उसके साथ रहता था। उसने कहा कि वह अभी शादी नहीं करना चाहता है। उसे अपना कॅरियर बनाना है। इस बात को जब नेहा ने सुना तो उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई और उसने सचिन को काफी भला-बुरा कहा पर सचिन ने कहा कि इसमें मेरी क्या गलती है, तुम्हारी तरफ से मेरे प्रति पहल हुई थी, मैंने तो तुमसे कभी नहीं कहा कि मैं तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ या शादी करना चाहता हूँ।

नेहा ने जब वास्तिविकता के धरातल को छूआ तो मानो आसमान टूट पड़ा हो उसके ऊपर, रह-रहकर रीतेश के द्वारा दी गई समझाइश उसके सामने आने लगी। हर वो बात जो रीतेश ने उसे समझाया था, उन्हीं सारी बातों का सामना आज नेहा को करना पड़ा।

अंत में नेहा के पास कुछ भी नहीं बचा, सिर्फ बची तो टेलीकॉम की नौकरी... और दोनों खाली हाथ...।

यदि नेहा अपने पति के काम को अपनी व्यक्तिगत जीवनमें स्वीकार कर लेती तो शायद आज उसे यह दिन नहीं देखना पड़ता। अगर इस बीच वह अपने पति की बातों को मान अपनी गलतियों को स्वीकार कर लेती तो भी वह आज अपने परिवार को संभाल सकती थीं। इसलिए तो कहा है कि 'प्रेम गली अति साँकरी जा मैं दो न समाय।'

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