Wednesday, December 2, 2009

चोर या छलिया....हूँ तो तुम्हारा...

मेरी प्रियतमा,

समझ नहीं आता कि किस नाम से तुमको सम्बोधित करूँ मैं...
मेरे प्यारे हमराज, हम कदम, हमदम, या फिर वेबफा सनम...

पर फिर भी जैसी भी हो, हो तो मेरी...
जिसे चुराया था, लोगों की नजरों से और छुपाया था अपने शानों में...

जहाँ तक तुम्हारा ख्याल है मेरे प्रति,

मैंने चुराया है, रात के अँधेरे में तुमको...
क्या बुरा किया है, कि तुमको तुम्हीं से चुराया है
मैंने अपने लिए...
अपने निर्जीव शरीर के लिए...
क्योंकि तुम मेरे बेजान शरीर की साँसें हो...
चाहत थी मेरी...

डर था मन में कहीं ऐसा न हो कि तुम हो जाओ
किसी ओर की...

जाहिर है.. कहीं न कहीं मेरे पालग मन का शैतानहावी था मुझ पर
कि चुरा लूँ तुमको तुम्हारे जहान से
ले आऊँ तुम्हें अपने जहान में...

जिंदगी लगा दाँव पर...
पाया है मैंने तुम्हें...
फिर चाहे तुम मुझे चोर कहो या फिर छलिया

चाहा है... तुम्हें
खुद से ज्यादा...एक चोर और छलिया बनकर...

सिर्फ तुम्हारा 'राज'

Friday, November 13, 2009

मेरी भावनाएँ और मेरे ब्लॉगर

‍प्रिय जानम,

आज भी दर्द पहले की
भाँति मेरे दिल में है...
किससे कहे... ‍किससे न कहे...
कुछ समझ नहीं आता है...
इसलिए तो जानम
तुमसे ज्यादा हमें... अपना ब्लॉग
और ब्लॉगर भाते हैं....

तुम तो कुछ नहीं कहती हो
पर वो तो हमारे दर्द को समझ जाते हैं...
इसलिए तो हमारे ब्लॉग पर
ढेर सारे ब्लॉगरों के कमेंट्‍स आते हैं...

धन्य हो जाती हैं मेरी भावनाएँ
जब मेरे स्नेही ब्लॉगर
मेरी भावनाओं को समझ जाते हैं....

तुम्हारा
राज

Saturday, November 7, 2009

मुद्दते हो गई है तेरे मेरे अफसाने को

प्रिये जानम

समय किस तरह रेत की

तरह निकल गया....
तेरी-मेरी चाहतों का
का सूरज
भोर से
शाम की ओर
निकल गया....

फिर वही काली अंधियारी रात
फिर बैचेनी और तन्हा रात

तुम्हारे आने की कल्पनाओं की
सेज आज फिर
सजने लगी है...
तुम आओ या न आओ...
तुम्हें हमारी चाहत
बुलाने लगी है...

सिर्फ़ तुम्हारा
राज

Sunday, March 22, 2009

मुझे फाँसी की सजा सुना दो...

प्रिय जानम,

किताबों की उलझनों से सुलझकर
तुम पहुँच गई.... अपनी मंजिल पर
सुनने में आया कि जज बन गई हो
अखबार में भी पढ़ने पर आया कि
तुम्हारी पोस्टिंग मेरे ही शहर में हो गई है।

एक अर्सा बीत गया
तुम्हें देखे हुए
आँखें पथराई सी हो गई
तुम्हें देखें बिन


लगता है कि
एक संगीन अपराध कर डालूँ...
इस बहाने कम-से-कम
तुम्हारे सामने तो आ जाऊँगा...

तुम न्याय की मूर्ति
मुझे फाँसी की सजा सुना देना...
रोज रोज मरता हूँ तुम्हारी याद में...
फाँसी की सजा पा कर
एक दिन में ही मर जाऊँगा..

तुम्हारी यादों के बोझ और
तन्हाइयों के पलों से
मुक्ति तो पा जाऊँगा ...

एक प्रेमिका के हाथों
जिंदगी ना मिली...
तो क्या हुआ मौत की सजा पाकर
अपने आपको धन्य मान जाऊँगा।

- तुम्हारा 'राज'

Friday, March 20, 2009

दारू, दवा और मेरे अनुभव

देखा जाए तो हमेशा दवा के साथ दारू अवश्य बोला जाता है। कहीं नहीं तो कम से कम हमारे मध्यप्रदेश में तो यह प्रचलित है। दारू शब्द जब कान में पड़ता है तो एक मदहोश, आँखों में लालिमा और लड़खड़ाते हुए पैरों से चलने वाले व्यक्ति की छवि नजर आ जाती है। वह व्यक्ति जो अपने होश और हवाश में नहीं रहता है, बहकते हुए कदमों से चलता है।

कुछ लोगों का मत है कि दारू पीने से गम दूर हो जाते हैं, कुछ लोग कहते हैं कि नींद अच्छी आ जाती है और कुछ लोग (मेरे जैसे) कहते हैं कि रात में पी लो तो सुबह ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने पेट को एरियल पावडर डालकर अच्छी तरह से साफ कर दिया है। लोग कहते हैं कि इन बातों में कुछ नहीं है, ये तो सब झूठ है, वह तो पीने के लिए बहाना बना रहा है।

मैं किसी और के बारे में बात तो बाद में करूँगा, लेकिन अपने अनुभव जरूर आपको बताता हूँ... यह सच है कि दारू पीने से शरीर को नुकसान होता है, पर फिर भी लोग दारू पीते हैं। आज सुबह जब ऑफिस आ रहा था, तो किसी सज्जन ने मुझसे लिफ्ट माँगी। चूँकि मैं जहाँ रहता हूँ, वहाँ से मेनरोड तक आने के लिए कोई साधन नहीं मिलता है, इसलिए मैं अकसर लोगों को लिफ्ट दे देता हूँ। सुबह के लगभग 6.45 हो रहे थे, मैंने उस बंदे को लिफ्ट दे दी और गाड़ी स्टार्ट कर चलने लगा। चलते-चलते मैंने उससे पूछा कि कहाँ तक जाना है... मेरी बात का जवाब देने की उसमें शक्ति नहीं थी, बस टूटे शब्दों में कहा कि आगे तक छोड़ देना.. उसके मुँह से शराब की काफी बदबू आ रही थी, पूछने पर जवाब दिया कि कुछ परेशानी है, इसलिए पी ली, माफ करना भाई... अरे... रे... बस यहीं रोक दो... पता है.. उसने मेरी बाइक शराब की दुकान के आगे रुकवाई और धन्यवाद कहकर चल दिया।


वह तो चला गया, लेकिन मेरे अंतर्मन में मंथन चल रहा था। मैंने अपने अंतर्मन की बातों को सोचा... फिर कुछ निर्णय लेकर मन को समझाया। यह सच है कि व्यक्ति जब परेशान होता है, तो उसे एक कांधे की जरूरत होती है, जिस पर सिर रखकर अपना दिल हलका कर ले... अपने मन की बात किसी दूसरे को बता दे... यही नहीं सामने वाले व्यक्ति को भी चाहिए कि वह उसकी बातों को समझे... और उसे सही समझाइश दे तो मैं समझता हूँ कि ऐसा करने से लगभग 25 प्रतिशत उस व्यक्ति को शराब के पास जाने से रोका जा सकता है।

ज्यादा शराब पीने से व्यक्ति का दिमागी संतुलन बिगड़ जाता है। उसके बात करने का लहजा बदल जाता है। यही नहीं उसमें चंद ही मिनटों में ऐसे परिवर्तन आ जाते हैं, जैसे किसी ने उसके ऊपर कोई जादू कर दिया हो। शांत रहने वाला राजू जिस दिन शराब पी लेता है, तो उसके व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है।

हमारे सामने रहने वाले अंकल को रोज ड्रिंक लगती है। वे बिना पिए रह ही नहीं सकते हैं। दिनभर तो ब्लैक एण्ड व्हाइट टीवी रहते हैं, परन्तु ऑफिस से घर आने के 30 मिनट बाद ही रंगीन टीवी बनना शुरू हो जाते हैं और रात 8 बजे तक तो पूरी तरह से रंगीन टीवी बनकर ऑन हो जाते हैं। फिर अब आपके हाथ में है‍ कि कौन-सा चैनल देखना है। सारे चैनल शुरू हो जाते हैं। यहाँ तक कि विदेशी चैनल भी आप देख और सुन सकते हो। जहाँ तक मुझे पता है वे लगभग 30 सालों से तो निरंतर शराब पी रहे हैं।
डॉक्टर भी कहता है कि अब वह उनकी जरूरत बन गई है। उनको गोली-दवाइयाँ भी असर नहीं करतीं... वैसे तो भगवान की दुआ से आज तक उन्हें कोई बीमारी नहीं हुई है। पूर्ण रूप से स्वस्थ हैं।

ऐसे ही एक सज्जन हैं हमारे राव साहब... उनकी तो बात ही निराली है... सालभर में एक दिन और एक क्वार्टर और उसमें से भी एक पैग वो ऐसे पीते हैं जैसे सिर्फ आज का दिन ही है, जो उन्हें पीने की इजाजत देता है। वह दिन होता है रंगपंचमी। इसके अलावा वे कभी हाथ नहीं लगाते हैं।

यदि हम साहित्य की ओर जाएँ तो कवि हरिवंशराय बच्चन ने तो पूरी किताब ही लिख डाली मधुशाला के नाम पर और वाकई में बहुत अच्छी कविता लिखी है... मंदिर, मस्जिद झगड़ा कराए और मेल कराए मधुशाला। इतिहास गवाह है कि अवश्य दारू में कुछ ऐसी बात है, जो व्यक्ति को एक ‍ही दिशा में सोचने को मजबूर कर देती है और व्यक्ति कुछ ऐसा कर जाता है जिसे हमेशा याद करते हैं।

हरिवंशरायजी के बेटे ने तो पूरी फिल्म ही शराब के ऊपर कर ली। फिल्म का नाम भी शराबी ही था, अच्छी पिक्चर है। उसका शानदार डायलॉग 'कभी जितनी छोड़ दिया करते थे मयखाने में ... आज उतनी भी नहीं बची पैमाने में....'। यही नहीं उसमें यह भी दर्शाया गया कि नशा शराब में होता तो नाचती बोतल।

हमने भी शराब का तहेदिल से सेवन किया और किसी की याद में बहुत सारी कविताएँ लिख डालीं। रात-रातभर उनके गम में प्याले पर प्याले छलकाते रहे, लेकिन वो है कि आए ही नहीं। अरे भाई हम भी किसी जमाने में बड़े दिलजले हुआ करते थे। खैर आज भी इंतजार है किसी का ... पर कमबख्त कोई आए तो सही।

कुल मिलाकर इन बातों का निष्कर्ष कुछ नहीं निकला है... बाकी आप लोगों की प्रतिक्रियाओं की जरूरत है...

Friday, January 30, 2009

अब तो इकरार कर लो..

प्रिय जानम,

हाँ ये सच है कि मुझे तुमसे
अब भी प्यार...

ये वही प्यार है... जिसके सामने
तुम गत वर्षों से मौन-सी
रही...
मैं कहता ही रहा...
पर तुम चुप-सी रहीं

मिल गईं तुम्हें उन किताबों की
मंजिल... जिसकी तलाश थी...

पहुँच गईं उस मुकाम पर
जिसकी बुनियाद तुमने धैर्य, लगन, कर्मठता
और पारिवारिक चुनौतियों के बीच
रखी थी...

कब तक इंतजार करना होगा
तुम्हारे उन लम्हों का...
जिसके सहारे अब तक जी रहा हूँ
और पता नहीं कब तक ...
उन लम्हों के बीच रहता रहूँगा

प्रकृति भी अपना स्वरूप बदलती है...
ठीक उसी अंदाज में...
मैं भी चाहता हूँ कि तुम
बदलो अपने आपको...

और समा जाओ मेरे
प्यार के आगोश में...
और जान डाल दो
मेरी चाहत के शब्दों में...

हद होती है इंतजार की...
हद होती है बेकरारी की...
अब जरूरत है
इजहारे प्यार की...

सिर्फ तुम्हारा
बीता हुआ 'कल'

Sunday, January 25, 2009

दहकती रही मेरी हसरतें गुलमोहर के साथ...

मेरी जान,

अभी तक गर्म हैं तुम्हारे होंठ,
भले ही अर्सा पहले छूआ था, मैंने उन्हें
मेरी प्यास शुरू होती है
समन्दर के किनारे से
और खत्म होती है
तुम्हारी आँखों के नीले दरिया में...


कई बार चाहा कि
छा जाऊँ इन्द्रधनुष बनकर
तुम्हारे मन के आसमान पर
या सजता रहूँ तुम्हारी देह पर
हर श्रृंगार बनकर

फलती रही अनगिनत कामनाएँ
अमलतास के सुनहरेपन में
दहकती रही हसरतें गुलमोहर के साथ
तुम एक बार ही सही
सिर्फ एक कदम चलो
पसारकर अपनी आत्मीय बाँहें, समेटों मुझे
और डूब जाओ सूरज की तरह
मेरी इच्छाओं के क्षितिज में...

सिर्फ तुम्हारा मन

Saturday, January 24, 2009

मेरे ख्यालों की वास्तविकता हो तुम...

'प्रिय मेरे खुबसूरत ख्याल'
तुम कहती हो मुझ से कि 'तुम' ख्याल हो मेरा...
पर मैं ये कहता हूँ कि
ये सिर्फ तुम्हारा 'ख्याल' है...
मेरी नजर में...
मेरे 'ख्यालों की वास्तविकता' हो तुम...
जिसे जिया है मैंने...
जिसे चुराया है मैंने...
तुम से...

मुझे मालूम है कि चाहकर भी
मुझे नहीं चाह सकती हो तुम...
पाबंदियाँ लगा सकती हो... तुम...
पर इतना बता दूँ... मैं भी तुम्हें...
सम्भालकर रखना अपने दिल को...
क्योंकि चोर हूँ मैं दिल का...
सोचो गर चुरा लिया ...
तुम्हारा दिल तो क्या होगा... ...

बताता हूँ मैं तुम्हें...
फिर मैं तुम्हारा 'ख्याल' हो जाऊँगा
और जिस दुनिया में रहता हूँ मैं आज...
फिर तुम भी वहीं के हमसाथी हो जाओगे

तुम भले ही न कहो...
कि तुम्हें मुझसे प्यार है...
पर मेरे मन को महकाती है
तुम्हारी ये चुप्पी...
और तुम्हारी 'हाँ' का एहसास कराती है ...
तुम्हारी यह 'खामोशी'

सिर्फ तुम्हारा 'मन'

Wednesday, January 21, 2009

सर्द चुभन है तेरे प्यार की...

प्रिय जानम...

शीतल चंद्र की सर्द चुभन है...
मेरे दिल में तेरे प्यार की
अगन है...

तुझे पाने की तड़प ने
मेरे दिल को बेकरार कर दिया
तेरे एहसासों ने मेरे मन को
तेरे प्यार के प्रति और भी
सशक्त कर दिया...

मेरा तड़पता हुआ मन...
बैचेन दिल...
आज भी तेरे एहसासों से महका है...
तेरे प्यार की धुन में
आज तक मेरा
दिल चहकता रहता है...

तुम्हारा 'प्यार'

चापलूसी

कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि चापलूसी आखिर किस बला का नाम है? शायद यह एक ऐसी बला है, जो किसी को एकबार लग जाती है तो छूटने का नाम ही नहीं लेती।

चापलूसी का मतलब है होता है किसी को प्रसन्न करने के लिए उसकी झूठी प्रशंसा करना, उसे अच्छा लगे वैसा हीबोलना, अपने स्वार्थ को साधने के लिए उसकी अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करना। चापलूस दूसरों की बातों को तीसरेके सामने नमक-मिर्च डालकर चमचा बनकर परोसता है।चापलूस एक तरह से डाकिये का काम मुफ्त में कर देता है।फर्क इतना है कि डाकिया पत्र द्वारा दो व्यक्तियों के बीच केसंपर्क को, संबंध को बनाए रखता है, तो चापलूस चापलूसी केमाध्यम से दो व्यक्तियों के प्रगाढ़ संबंध को भी तोड़कर रख देताहै। चापलूसों को चापलूसी में ब्रह्मानंद सहोदर आनंद की प्राप्तिहोती है। इस आनंद से, रस से वह इतना अधिक अघा जाते हैंकि उन्हें डकार ले-लेकर जीते रहना पड़ता है। उनका साधारणीकरण हर जगह होता रहता है। ये बाहर-बाहरप्रसन्न अन्दर ही अन्दर दुःखी रहते हैं। मस्के मारकर बातें करने की अदा इन्हें जन्मजात प्राप्त होती है। येजिससे किसी की चापलूसी करते हैं, उसे भी इन पर कभी भरोसा नहीं होता, क्योंकि उनसे हम लड़ाई नहीं करसकते। इसका मतलब तो यही होता होगा कि जो चापलूसों के वश में हो जाते हैं, वे महामूर्ख होते हैं।

चापलूसी की मात्रा पुरुषों में कम और स्त्रियों में अधिक पाई जाती है। क्योंकि यह शब्द स्वयं ही स्त्रीलिंग है। स्त्रियोंमें भी ये उनकी शारीरिक आकृति के अनुपात में होती है। दुबली-पतली पवन के झोंके से हिलती रहने वाली स्त्रियोंमें ये बहुत ही कम मात्रा में, जिनका तन तंदुरुस्त हो उनमें सप्रमाण मात्रा में तथा मोटी थुल-थुल शरीर वाली स्त्रियोंमें ये अत्यधिक मात्रा में पाई जाती है। मोटी स्त्रियों में यह इसलिए अधिक होती है कि वे यही सोचती रहती हैं किउनके शरीर के मोटेपन से उनकी चापलूसी भी मोटापा पाती जाएगी और मोटी चापलूसी दुर्बलों को अवश्य दबोचदेगी। ऐसा उनका चापलूसी भरा विश्वास होता है।

आज के मस्कापॉलिश युग में चापलूसी करने में माहिर होना अति आवश्यक है। अगर आप किसी को अखाड़े मेंशारीरिक बल से पछाड़ नहीं सकते हो तो उसे चापलूसी द्वारा आसानी से चित कर सकते हैं। अब तो चारों ओरचापलूसों की जमात खड़ी हो रही है। उनकी यूनियन भी बन गई है। अतः आप किसी भी चापलूस को चापलूसीकरने से रोक नहीं सकते। अगर आप ऐसा दुःसाहस इस लोकतांत्रिक देश में करेंगे तो वे हड़ताल कर देंगे, बंद काआह्वान करेंगे, रास्ता रोको आंदोलन छेड़ देंगे, हल्ला बोलेंगे, अनशन करेंगे, विरोध पक्ष का समर्थन मांगेंगे और इनसबसे भी सफल नहीं होंगे तो अंत में चापलूस यूनियन चापलूसी द्वारा आपको ठिकाने लगा देगी। तब हमें भीचापलूसी करनी पड़ेगी, क्योंकि चापलूस स्वयं भी चापलूसी से ही वश में होते हैं। इसलिए चापलूसों से सदा सावधानरहना चाहिए, क्योंकि इनसे आपको भगवान भी नहीं बचा सकता, क्योंकि वह तो स्वयं ही चापलूसी से प्रसन्न होजाता है। चापलूस जानते हैं कि खुशामद से ही आमद है। बिना किसी की खुशामद किए लाभ नहीं होता। साधारण, निकम्मे लोग केवल खुशामद करके कोई बड़ा पद पा लेते हैं।

अब तो अंतरराष्ट्रीय चापलूसी प्रतियोगिता का आयोजन होने जा रहा है। हमारी सरकार भी इसमें गहरी रुचि ले रहीहै। हमारे राजनीतिज्ञों को इससे पूरा लाभ तो होगा ही, चापलूसी के लिए स्तरीय पुरस्कार भी मिलेंगे।

चापलूसों के चेहरे पर हँसी और आँखों में क्रूरता होती है। इनके दोस्तों की कोई कक्षा ही नहीं होती अर्थात वे अकक्षेयहोते हैं। चापलूस इस बात के लिए सदा सजग होते हैं कि उनकी बात कोई अन्य सुन ले। बात को यकायक रोकनेकी कला में ये माहिर होते हैं। कान इनके लम्बे और आँखें बड़ी-बड़ी होती हैं। ये जिनकी चापलूसी कर रहे होते हैं, उन्हें कनखियों से ही देखते हैं। ये भीड़ में भी एकांत खोज लेते हैं। ये बिहारी के नायक और नायिका के समान भरेभौन में करत हैं नैन ही सौं बात-जिससे बतरस परोस सकें। इनकी वाणी मधुर और जीभ कड़वी होती है, अर्थातमधुमिश्रित विष। इन्हें हार्ट अटैक होने की संभावना अधिक रहती है। हार्ट अटैक के बाद इन्हें चापलूसी के इंजेक्शनदिए जाएँ तो मरते वक्त भी अपनी चापलूसी करने की अंतिम इच्छा को पूरा कर पाएँगे।

ये परिवार नियोजन पर अमल कभी भी नहीं करते। ये दूसरों में प्रिय होने की निकम्मी कोशिश करते रहते हैं।परिणामस्वरूप महादानी कर्ण के गुण भी जरूरत पड़ने पर ग्रहण कर लेते हैं। बड़े-बड़े पदाधिकारियों को पटाने में येपूर्ण रूप से कुशल होते हैं। चापलूस अपने को कभी भी हीन नहीं मानते फिर भी कभी ऊँचे नहीं उठ सकते। ये हमेशादेखते रहते हैं, खाते नहीं-तेन तक्त्येन भुंजीथा का हमेशा पालन करते हैं। सब कुछ त्यागकर भी ये चापलूसी करनानहीं त्याग सकते। ये हीन को महान और महान को हीन बना देते हैं, नीच को भी ऊँचाई पर पहुँचा देते हैं। प्रशंसाद्वारा दूसरे का अपमान ये बहुत अच्छी तरह कर सकते हैं। जिससे चापलूस अपने दुश्मन से अधिक दोस्तों ही काअपमान करते हैं, क्योंकि किसी की बार-बार प्रशंसा करना भी उनके घोर अपमान के बराबर होता है। निराधारप्रशंसा करने वाला निराधार निंदा भी कर सकता है। इस प्रकार भाव-पक्ष और कला-पक्ष का चापलूसों में अपूर्वसंगम होता है।

चापलूस का व्यक्तित्व गहरा नहीं होता। उसका तल तुरंत ही सामने दिखने लगता है। इनका कोई चारित्र्य नहींहोता। ये खुले होकर भी अपने को नंगा नहीं मानते। इनके चेहरे से नूर नहीं, दुनियाभर की चापलूसी टपकती रहतीहै। मेहमानों की आवभगत ये चापलूसी के नाश्ते से ही करते हैं।

चापलूसों का सिर्फ एक ही दोष होता है कि वे चापलूस हैं, ऐसा कभी भी मानने को तैयार नहीं होते। खुशामद सेतत्काल फल मिलता है। अयोग्य व्यक्ति केवल खुशामद के बल से ही लाभ उठाते हैं। इसीलिए तो उक्ति प्रसिद्ध है कि
'खुशामद से आमद है, इसीलिए सबसे बड़ी खुशामद है'।

Saturday, January 3, 2009

सिर्फ 'तुम' और 'मैं'...

प्रिय जानम...

अरे नहीं... कोई देख लेगा..
तुम्हारे ये वाक्य आज भी
मेरे कानों में
गूँजते हैं... भले ही इन्हें
एक दशक से ज्यादा हो गया...

तुम्हारे सूर्ख लवों का
वो एहसास... आज भी मेरे
लवों पर हैं...

मेरे स्पर्श मात्र से
काँपते हुए तुम्हारे
होंठ ... और गर्म होती तुम्हारी साँसें
धीरे से हल्के से मेरा तुम्हें छूना...

और तुम्हारा वो छिंटक कर दूर जाना...
सच में नहीं भूला पाया तुम्हारे
उन एहसासों को...

तुम नहीं हो तो क्या हुआ
आज भी तुम्हारे
एहसासों के साथ जी रहा हूँ...

सिर्फ तुम्हारा 'राज