Thursday, December 25, 2008

मेरे प्यारे दीपक

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल,
प्रियतम का पथ आलौकित कर!

सौरभ फैला विपुल धूप बन,
मृदुल मोम-सा घुल रे मृदु तन
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित
तेरे जीवन का अणु गल-गल!
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!

सारे शीतल कोमल नूतन,
माँग रहे तुझको ज्वाला-कण
विश्वशलभ सिर धुन कहता ''मैं
हाय न जल पाया तुझमें मिल''!
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!

जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेहहीन नित कितने दीपक
जलमय सागर का उर जलता
विद्युत ले घिरता है बादल!
विहंस-विहंस मेरे दीपक जल!

द्रुम के अंग हरित कोमलतम
ज्वाला को करते हृदयंगम
वसुधा के जड़ अंतर में भी,
बन्दी नहीं है तापों की हलचल!
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल!

मेरे निश्वासों से द्रुततर
सुभग न तू बुझने का भय कर
मैं अंचल की ओट किए हूँ,
अपनी मृदु पलकों से चंचल!

3 comments:

निर्मला कपिला said...

sunder hai

वेद रत्न शुक्ल said...

महादेवी जी की इस कविता में वेदना की गहराई और समर्पण का भाव है।

A.S.K.Azad said...

क्या कोई बता सकता है कि यहाँ उन्होंने प्रियतम शब्द किसके लिए इस्तेमाल किया है?